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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक २२ २०० इति काव्यार्थः ॥ २१ ॥ अथान्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वात् आस्तां तावत्साक्षाद् भवान् भवदीयप्रवचनावयवा अपि परतीर्थिकतिरस्कारवद्धकक्षा इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याद्वादव्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाह— अनन्तधर्मात्मकमेव तच्चमतोऽन्यथा सच्चम सूपपादम् । इति प्रमाणान्यपि ते कुवादिकुरङ्गसंत्रासन सिंहनादाः ॥ २२ ॥ तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु जीवाजीवलक्षणम् अनन्तधर्मात्मकमेव । अनन्तास्त्रिकालविषयत्वाद् अपरिमिता ये धर्माः सहभाविनः क्रमभाविनश्च पर्यायाः । त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्तधर्मात्मकम् । एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः । अत एवाह अतोऽन्यथा इत्यादि । ही खाता है, दूध नहीं पीता; और गोरसका व्रत लेनेवाला पुरुप दूध और दही दोनों नहीं खाता । अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और धीव्य रूप है ।" (यहाँ उत्पाद, व्यय और प्रौव्यको दृष्टांतसे समझाया गया है। एक राजाके एक पुत्र और एक पुत्री थी । राजाकी पुत्रीके पास एक सोनेका घड़ा था, राजाके पुत्रने उस घड़ेको तुड़वा कर उसका मुकुट वनवा लिया । घड़ेके नष्ट होनेपर ( व्यय ) राजाकी पुत्रीको शोक हुआ, मुकुटको उत्पत्ति होनेसे ( उत्पाद ) राजाके पुत्रको हर्प हुआ, तथा राजा दोनों अवस्थाओं में मध्यस्थ था ( ध्रौव्य ), इसलिये राजाको शोक और हष दोनों नहीं हुए । इससे मालूम होता है, कि प्रत्येक वस्तुमें उत्पाद, व्यय और धौव्य तीनों अवस्थायें मौजूद रहती हैं । इसी प्रकार दूधका व्रती दही, और दहीका व्रती दूध, मोर गोरसका व्रती दही और दूध दोनों नहीं खाता है । इसलिये प्रत्येक वस्तु तीनों रूप है ) | यह श्लोकका अर्थ हैं ॥ भावार्थ — जैन दर्शनके अनुसार उत्पाद, व्यय और धौव्य ही वस्तुका लक्षण है ( उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ) । वेदान्ती लोगोंके अनुसार, वस्तु तत्त्व सर्वथा नित्य और वौद्धोंके अनुसार प्रत्येक वस्तु सर्वथा क्षणिक है । परन्तु जैन लोगों का मत है कि प्रत्येक वस्तुमें उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं, इसलिये पर्यायको अपेक्षा वस्तु अनित्य है, तथा उत्पत्ति और नाश होते हुए भी हमें वस्तुकी स्थिरताका भान होता है, अतएव द्रव्यकी अपेक्षा वस्तु नित्य है । अतएव जैन दर्शनमें प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य, और कथंचित् अनित्य स्वीकार की गई है । उत्पाद, व्यय और धौव्य परस्पर कथंचित् भिन्न होकर भी सापेक्ष हैं । जिस प्रकार नाश और स्थितिके विना केवल उत्पाद संभव नहीं है, तथा उत्पाद और स्थितिके विना नाश संभव नहीं है, उसी तरह उत्पाद और नाशके विना स्थिति भी संभव नहीं । अतएव उत्पाद, व्यय और धौव्यको ही वस्तुका लक्षण मानना चाहिये । साक्षात् भगवान्‌की बात तो दूर रही, भगवान्‌के उपदेशके कुछ अंश ही कुवादियोंको पराजित करनेमें समर्थ हैं, इसलिये स्तुतिकार स्याद्वादका प्रतिपादन करते हैं श्लोकार्थ—प्रत्येक पदाथमें अनन्त धर्म मौजूद हैं, पदार्थोंमें अनन्त धर्म माने विना वस्तुको सिद्धि नहीं होती । अतएव आपके प्रमाणवाक्य कुवादी रूप मृगोंको डरानेके लिये सिंहकी गर्जनाके समान हैं । व्याख्यार्थ - जीवरूप और अजीवरूप परमार्थभूत वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है । त्रिकालविषय होनेसे जो धर्म अनन्त हैं वे सहभावी पर्याय ( गुणरूप ) और क्रमभावी पर्यायरूप होते हैं । सहभावी और क्रमभावी पर्यायें जिसका स्वरूप होती हैं, वह वस्तु अनंतधर्मात्मक होती हैं । यहाँ 'एव' शब्द, अनंतधर्मात्मक. न होनेवाली वस्तुका परिहार करनेके लिये प्रयुक्त किया गया है । अतएव 'अतोऽन्यथा' इत्यादि शब्दोंका
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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