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अन्य. यो. व्य. श्लोक २१] स्याद्वादमञ्जरी
१९९ ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते न वा ? यदि भिद्यन्ते, कथमेकं वस्तु त्रयात्मकम् ? न भिद्यन्ते चेत् , तथापि कथमेकं त्रयात्मकम् ? तथा च
यद्यत्पादादयो भिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम् ।
अथोत्पादादयोऽभिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम्" इति चेत् , तद्युक्तं, कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वेन तेषां कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमात् । तथाहि-उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद् भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात् , रूपादिवदिति । न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम् । असत आत्मलाभः सतः सत्तावियोगः द्रव्यरूपतयानुवर्तनं चखलुत्पादादीनां परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि सकललोकसाक्षिकाण्येव ॥
न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेक्षाः, खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः । तथाहि-उत्पादः केवलो नास्ति, स्थितिविगमरहितत्वात् कूर्मरोमवत् । तथा विनाशः केवलो नास्ति, स्थित्युत्पत्तिरहि तत्वात् , तद्वत् । एवं स्थितिः केवला नास्ति, विनाशोत्पादशून्यत्वात् , तद्वदेव । इत्यन्योऽन्यापेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । तथा चोक्तम्--
"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥१॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥२॥”
शंका-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं, या अभिन्न ? यदि उत्पाद आदि परस्पर भिन्न हैं, तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप नहीं कहा जा सकता। यदि वे परस्पर अभिन्न हैं, तो तीनों एक रूप होनेसे तीन रूप कैसे हो सकते हैं ? कहा भी है--
__ "यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं, तो वे तीन रूप नहीं कहे जा सकते । यदि उत्पाद आदि अभिन्न हैं, तो उन्हें तीन रूप न मानकर एक ही मानना चाहिये।"
समाधान--यह ठीक नहीं। क्योंकि हम लोग उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें कथंचित् भेद होनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें कथंचित् भेद मानते हैं। तथाहि-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य कथंचित् भिन्न हैं, भिन्न लक्षणवाले होनेसे; रूप, रस, स्पर्श और गंधकी भाँति । यहाँ भिन्न लक्षणरूप हेतु असिद्ध नहीं है । उत्पत्तिके पूर्व जिसका ( कथंचित् ) अभाव होता है उसका प्रादुर्भाव ( आत्मलाभ ), जो विद्यमान होता है उसकी सत्ताका अभाव, तथा द्रव्य रूपसे अनुवर्तन-ये वस्तुतः उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके परस्पर असंकीर्ण लक्षण सभीके द्वारा जाने जाते हैं।
उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरेसे निरपेक्ष नहीं हैं । यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को एक दूसरेसे निरपेक्ष मान, तो आकाश-पुष्पकी तरह उनका अभाव मानना पड़े। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोंके नाश और स्थितिके विना, बालोंका केवल उत्पाद होना संभव नहीं है, उसी तरह व्यय और ध्रौव्यसे रहित केवल उत्पादका होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार कछुवेके बालोंकी तरह उत्पाद और ध्रौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिये। कहा भी है
"घड़े, मुकुट और सोनेके चाहनेवाले पुरुष घड़ेके नाश, मुकुटके उत्पाद, और सोनेकी स्थितिमें क्रमसे शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते हैं । तथा, 'मैं दूध ही पीऊगा' इस प्रकारका व्रत रखनेवाला पुरुष सिर्फ दूध ही पीता है, दही नहीं खाता; 'मै आज दही ही खाऊँगा' इस प्रकारका नियम लेनेवाला पुरुष सिर्फ दही १ आप्तमीमांसायां ५९,६०