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________________ १९८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लो, २१ वस्तुतत्त्वं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् । तथाहि सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते विपद्यते वा, परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । लूनपुनर्जातनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम् , प्रमाणेन बाध्यमानस्यान्वयस्यापरिस्फुटत्वात् । न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः सत्यप्रत्यभिज्ञानसिद्धत्वात् । “सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात्" ॥ इति वचनात् ॥ ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः । पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते विपद्यते च, अस्खलितपर्यायानुभवसद्भावात् । न चैवं शुक्ले शङ्ख पीतादिपर्यायानुभवेन व्यभिचारः, तस्य स्खलद्रूपत्वात् । न खलु सोऽस्खलद्रूपो येन पूर्वाकारविनाशाजहद्धृतोत्तराकारोत्पादाविना भावी भवेत् । न च जीवादी वस्तुनि हर्षामाँदासीन्यादिपर्यायपरम्परानुभवः स्खलद्रूपः, कस्यचिद् बाधकस्याभावात् । प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप है। तथाहि-द्रव्यकी अपेक्षासे कोई वस्तु न उत्पन्न होती है, और न नाश होती है । कारण कि द्रव्यमें भिन्न भिन्न पर्यायोंके उत्पन्न और नाश होनेपर भी द्रव्य एकसा दिखायी देता है । ( भाव यह है कि यदि द्रव्य रूपसे वस्तुका उत्पन्न होना स्वीकार किया जाये तो उत्पत्तिके पूर्वकालमें उसे सर्वथा असत् मानना होगा। ऐसी दशामें असत्से सत्की उत्पत्ति स्वीकार करनी होगी । तथा, यदि द्रव्यरूपसे वस्तुका विनाश होना स्वीकार किया जाये तो सत्का विनाश मानना होगा। और असत्का उत्पाद और सत्का नाश कभी होता नहीं। दूसरी बात यह है कि उत्पत्ति और विनाशके काल में सत्का अभाव होने पर उत्पत्ति और विनाश किसके होंगे ? अतएव जब वस्तुका अपने उपादेयभूत परिणामके रूपसे उत्पाद होता है और परिणामके विनाशके रूपसे व्यय होता है, तब द्रव्यका सद्भाव होता है, ऐसा मानना ही होगा, तथा दोनों अवस्थाओंमें द्रव्यका अन्वय होनेसे उसका सदाव देखा जाता है)। शंका-नख आदिके काटे जाने पर फिरसे बढ़ जानेसे वे पहिले जैसे दिखाई देते हैं, परन्तु वास्तवमें बढ़े हुए नख पहले नखोंसे भिन्न हैं। इसी तरह सम्पूर्ण पर्याय नयी नयी उत्पन्न होती हैं। इसलिये पर्यायोंको द्रव्यको अपेक्षा एक मानना ठीक नहीं है। समाधान-यह ठीक नहीं। कारण कि फिरसे पैदा हुए नख पहले नखोंसे भिन्न हैं, इसलिये नख आदिके दृष्टांतमें प्रत्यक्षसे विरोध आता है । परन्तु उत्पाद और नाशके होते हुए द्रव्यका एकसा अवस्थित रहना प्रत्यभिज्ञान प्रमाणसे सिद्ध है । कहा भी है-- "प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षणमें बदलते रहते हैं, फिर भी उनमें सर्वथा भिन्नपना नहीं होता। पदार्थोंमें आकृति और जातिसे ही अनित्यपना और नित्यपना होता है।" ____ अतएव द्रव्यकी अपेक्षा प्रत्येक वस्तु स्थिर है, केवल पर्यायकी दृष्टिसे पदार्थों में उत्पत्ति और नाश होता है । हमें पर्यायोंके उत्पाद और व्ययका निर्दोष अनुभव होता है। इससे सफेद शंखके पीतादि पर्यायके रूपसे परिणमन होने पर भी उसमें जो पीत आदि पर्यायका अनुभव ( ज्ञान ) होता है, उसके साथ 'पर्यायोंके निर्दोष अनुभवके सद्भावरूप' हेतुका व्यभिचार नहीं आता। क्योंकि सफेद शंखमें पीलेपनका ज्ञान स्खलित होनेवाला होता है, कारण कि नेत्ररोगके दूर होनेपर वह ज्ञान हमें असत्य मालूम होता है । सफेद शंखमें पीलेपनका ज्ञान अस्खलित नहीं होता, अर्थात् नष्ट होनेवाला होता है जिससे कि पूर्व पर्यायका नाश, ध्रुव रूप द्रव्यका त्याग न करनेवाली उत्तर पर्यायकी उत्पत्तिके साथ अविनाभावी होता है। जीव आदि पदार्थों में हर्ष, क्रोध, उदासीनता आदि पर्यायोंकी परम्परा अस्खलित नहीं कही जा सकती, क्योंकि उन पर्यायोंके अनुभवको बाधित करनेवाले हेतुका सद्भाव नहीं है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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