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________________ विाद अन्य. यो. व्य. श्लोक २१] स्याद्वादमञ्जरी १९७ मुत्पादविनाशयोरनुयायित्वात् त्रिकालवर्ति यदेकं द्रव्यं स्थिरैकम् । एकशब्दोऽत्र साधारणवाची। उत्पादे विनाशे च तत्साधारणम, अन्वयिद्रव्यत्वात । यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी साधारणेत्यर्थः। इत्थमेव हि तयोरेकाधिकरणता पर्यायाणां, कथञ्चिदनेकत्वेऽपि तस्य कथञ्चिदेकत्वात् । एवं त्रयात्मकं वस्तु अध्यक्षमपीक्षमाणः प्रत्यक्षमवलोकयन् अपि । हे जिन रागादिजैत्र । त्वदाज्ञाम् आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबुद्धयन्ते जीवाजीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगमः शासनं तवाज्ञा त्वदाज्ञा। तां त्वदाज्ञां भवत्प्रणीतस्याद्वादमुद्राम् यः कश्चिदविवेकी अवमन्यतेऽवजानाति । जात्यपेक्षमेकवचनमवज्ञया वा। स पुरु पिशाचकी वा । वातो रोगविशेषोऽस्यास्तीति वातकी । वातकीव वातकी । वातूल इत्यर्थः। एवं पिशाचकीव पिशाचकी। भूताविष्ट इत्यर्थः॥ ___ अत्र वाशब्दः समुच्चयार्थः उपमानार्थो वा । स पुरुषापसदो वातकिपिशाचकिभ्यामधिरोहति तुलामित्यर्थः। “वातातीसारपिशाचात्कश्चान्तः" इत्यनेन मत्वर्थीयः कश्चान्तः । एवं पिशाचकीत्यपि। यथा किल वातेन पिशाचेन वाक्रान्तवपुर्वस्तुतत्त्वं साक्षात्कुर्वन्नपि तदावेशवंशात् अन्यथा प्रतिपद्यते एवमयसप्येकान्तवादापस्मारेपरवश इति । अत्र च जिनेति साभिप्रायम् । रागादिजेतृत्वाद् हि जिनः। ततश्च यः किल विगलितदोषकालुष्यतयावधेयवचनस्यापि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः। नाथ हे स्वामिन् । अलब्धस्य सम्यग्दर्शनादेलम्भकतया लब्धस्य च तस्यैव निरतिचारपरिपालनोपदेशदायितया च योगक्षेमकरत्वोपपत्तेर्नाथः। तस्यासन्त्रणम् ।। एक माता है, उसी तरह उत्पाद और विनाश दोनोंका अधिकरण एक अन्वयी द्रव्य है, इसलिये उत्पाद और विनाशके रहते हुए भी द्रव्य सदा स्थिर रहता है। क्योंकि उत्पाद और व्यय रूप पर्यायोंके कथंचित् अनेक होने पर भी द्रव्य कथंचित् एक माना गया है । इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप पदार्थोंको प्रत्यक्षसे देखकर भी वातरोग अथवा पिशाचसे ग्रस्त लोगोंकी तरह अविवेकी लोग आपकी अनेकान्त रूप आज्ञाका उल्लंघन करते हैं। यहाँ 'वा' शब्द समुच्चय अथवा उपमान अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इसलिये यह अर्थ होता है कि आपकी आज्ञाको उल्लंघन करनेवाले अधम पुरुष वातको ( वात रोगसे ग्रस्त ) अथवा पिशाचकी ( पिशाचसे ग्रस्त ) की तरह हैं। यहाँ “वातातीसारपिशाचात्कश्चान्तः" सूत्रसे वात और पिशाच शब्दसे मत्वर्थमें इन् प्रत्यय होकर अन्तमें 'क' लग जाता है। जिस प्रकार वात और पिशाचसे ग्रस्त पुरुष पदार्थों को देखते हुए भी उन्हें वात और पिशाचके आवेशमें अन्यथा रूपसे प्रतिपादन करता है, वैसे ही एकान्तवाद रूपी अपस्मार ( मृगी) से पीड़ित मनुष्य प्रत्येक पदार्थमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य अवस्थायें देखकर भी उन्हें अन्यथा रूपसे प्रतिपादन करता है । श्लोकमें 'जिन' शब्दका प्रयोग विशेष अर्थ बतानेके लिये किया गया है । जिसने राग, द्वेष आदि दोषोंको जीत लिया है, उसे जिन कहते हैं । अतएव आपके वचनोंके निर्दोष होनेपर भी जो लोग उनकी अवज्ञा करते है, उन्हें उन्मत्त ही कहना चाहिये । हे स्वामिन्, आप सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेवाले और उसे निरतिचार पालन करनेका उपदेश देनेवाले होनेके कारण सुख और शांतिके दाता हैं, इसलिये आप नाथ हैं। १. हैमसूत्रे ७-२-६१ । २. अपस्मर्यते पूर्ववृत्तं विस्मयतेऽनेन । रोगविशेषः । तमःप्रवेशो संरम्भो दोषोद्रेकहतस्मृतेः । अपस्मार इति ज्ञेयो गदो घोरश्चतुर्विधः ॥ शब्दकल्पद्रुमे ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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