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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २१ धर्मः फलं च भूतानाम् उपयोगो भवेद् यदि ।
प्रत्येकमुपलम्भः स्यादुत्पादो वा विलक्षणात् ।।" इति काव्यार्थः॥ २०॥
एवमुक्त्युक्तिभिरेकान्तवादप्रतिक्षेपमाख्याय साम्प्रतमनाद्यविद्यावासनाप्रवासितसन्मतयः प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तवादं येऽवमन्यन्ते तेपामुन्मत्ततामाविर्भावयन्नाह
प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगिस्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः ।
जिन त्वदाज्ञामवमन्यते यः स वातकी नाथ पिशाचकी वा ॥२१॥ . प्रतिक्षणं प्रतिसमयम् । उत्पादेनोत्तराकारस्वीकाररूपेण विनाशेन च पूर्वाकारपरिहारलक्षणेन युज्यत इत्येवंशीलं प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि। किं तत् ? स्थिरैकं कर्मतापन्नं । स्थिर
'यदि चैतन्य ( उपयोग ) पृथिवी आदि भूतोंका धर्म या कार्य हो, तो प्रत्येक पदार्थमें चैतन्यकी उपलब्धि होनी चाहिये, और विजातीय पदार्थोंसे सजातीय पदार्थोंकी उत्पत्ति होनी चाहिये। यह श्लोकका अर्थ है ॥
भावार्थ-चार्वाक (१) प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है । अतएव पांच इन्द्रियोंके वाह्य कोई वस्तु नहीं है, इसलिए स्वर्ग, नरक और मोक्षका सद्भाव नहीं मानना चाहिये । वास्तवमें कण्टक आदिसे उत्पन्न होनेवाले दुखको नरक कहते हैं, प्रजाके नियन्ता राजाको ईश्वर कहते हैं, और देहको छोड़नेको मोक्ष कहते हैं। अतएव मनुष्य जीवनको खूब आनन्दसे विताना चाहिये, कारण कि मरनेके वाद फिर संसारम जन्म नहीं होता। जैन-अनुमान प्रमाणके विना दूसरेके मनका अभिप्राय ज्ञात नहीं हो सकता । क्योंकि प्रत्यक्षसे इन्द्रियोंके बाह्य दूसरोंका अभिप्राय नहीं जाना जा सकता। 'यह पुरुप मेरे वचनोंको सुनना चाहता है, क्योंकि इसके मुहपर अमुक प्रकारकी चेष्टा दिखाई देती है-इस प्रकारका ज्ञान अनुमानके विना नहीं हो सकता। तथा, विना अनुमान प्रमाणके ज्ञानके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का भी निश्चय नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त, प्रत्यक्षकी सत्यता भी अनुमानसे ही जानी जाती है । इसलिये अनुमान अवश्य मानना चाहिये।
चार्वाक-(२) जिस प्रकार मादक पदार्थोसे मदशक्ति पैदा होती है, वैसे ही पृथिवी आदि भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है। पांच भूतोंके नाश होनेसे चैतन्यका भी नाश हो जाता है, इसलिये आत्मा कोई वस्तु नहीं है । आत्माके अभाव होनेसे धर्म, अधर्म, और पुण्य, पाप भी कोई वस्तु नहीं ठहरते । जैन-यदि मादक शक्तिकी तरह चैतन्यको पांच भूतोंका विकार माना जाय, तो जिस तरह मदशक्ति प्रत्येक मादक पदार्थमें पायी जाती है, वैसे ही चेतन शक्तिको भी प्रत्येक पदार्थमें उपलब्ध होना चाहिये। तथा, यदि पृथिवी आदिसे चेतन शक्ति उत्पन्न हो, तो मृतक पुरुपमें भी चेतना माननी चाहिये । इसके अतिरिक्त, पृथिवी आदि चैतन्यके विजातीय हैं, क्योंकि चैतन्यमें पृथिवीके काठिन्य आदि गुण नहीं पाये जाते। अतएव चेतना शक्तिको भौतिक विकार नहीं मानकर आत्माको स्वतंत्र पदार्थ मानना चाहिये ।
इस प्रकार एकान्तवादका खंडन करके, अनादि अविद्याकी वासनासे मलिन बुद्धिवाले जो लोग अनेकांतको प्रत्यक्षसे देखते हुए भी उसकी अवमानना करते हैं, उनकी उन्मत्तताका प्रदर्शन करते हैं
इलोकार्थ-हे नाथ, प्रत्येक क्षणमें उत्पन्न और नाश होनेवाले पदार्थों को प्रत्यक्षसे स्थिर देखकर भी वातरोग अथवा पिशाचसे ग्रस्त लोगोंकी तरह लोग आपकी आज्ञाको अवहेलना करते हैं।
व्याख्यार्थ-प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण उत्तर पर्यायोंके होनेसे उत्पन्न ( उत्पाद ) और पूर्व पर्यायोंके नाश होनेसे नष्ट ( व्यय) होकर भी स्थिर रहता है। जिस प्रकार चैत्र और मैत्र दोनों भाइयोंका अधिकरण