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अन्य. यो. व्य. श्लोक २२] स्याद्वादमञ्जरी
२०१ अतोऽन्यथा उक्तप्रकारवैपरीत्येन । सत्त्वं वस्तुतत्त्वम् । असूपपादं सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटङ्कमारोप्यते इति सूपपादं । न तथा असूपपादं । दुर्घटमित्यर्थः। अनेन साधनं दर्शितम् । तथाहि-तत्त्वमिति धर्मि । अनन्तधर्मात्मकत्वं साध्यो धर्मः। सत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः, अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोः। अन्तर्व्याप्त्यैव' साध्यस्य सिद्धत्वाद् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम् । यदनन्तधर्मात्मकं न भवति तत् सदापि न भवति, यथा वियदिन्दीवरम् इति केवलव्यतिरेकी हेतुः, साधर्म्यदृष्टान्तानां पक्षकुक्षि निक्षिप्तत्वेनान्वयायोगात् ।
अनन्तधर्मात्मकत्वं च आत्मनि तावद् साकारानाकारोपयोगिता । कर्तृत्वं भोक्तृत्वं प्रदेशाष्टकनिश्चलता अमूर्तत्वम् असंख्यातप्रदेशात्मकता जीवत्वमित्यादयः सहभाविनो प्रयोग किया गया है। अतोऽन्यथा' अर्थात् उक्त प्रकारसे विपरीत। 'सत्त्व' अर्थात् वस्तुका स्वरूप । 'सूपपाद'सुखसे प्राप्त करने योग्य । जो 'सूपपाद' नही, वह 'असूपपाद' अर्थात् दुर्घट । इसके द्वारा साधन प्रदर्शित किया गया है । तथाहि-तत्त्वं' यह धर्मी है । 'अनन्त धर्मात्मकत्व' यह साध्यभूत धर्म है । 'सत्त्वान्यथानुपपत्तेः' हेतु है; क्योंकि अन्यथानुपपन्नत्व हेतुका लक्षण है। 'वस्तुतत्त्व ( पक्ष ) अनन्त धर्मात्मक ( साध्य ) है, क्योंकि दूसरे प्रकारसे वस्तुतत्त्वकी सिद्धि नहीं होती ( हेतु)-यहाँ अन्तर्व्याप्तिसे साध्यको सिद्धि होती है, इसलिये उक्त हेतुमें दृष्टांतकी आवश्यकता नहीं है। ( जहाँ साधनसाध्यसे व्याप्त होता है, अर्थात् जहाँ साध्य अपने स्वरूपसे साधनमें होता है, उसे अन्तर्व्याप्ति कहते हैं। जिस समय प्रतिवादीको व्याप्ति संबंधका ज्ञान करते समय व्याप्ति संबंधका स्मरण होता है, उस समय प्रतिवादीको हेतुके सर्वत्र साध्य युक्त होनेका ज्ञान होता है, और साथ ही अन्तर्व्याप्ति ज्ञानसे प्रतिवादीको यह भी ज्ञान होता है कि प्रस्तुत पक्षमें वर्तमान हेतु भी साध्यसे युक्त है । दृष्टांतके बिना पक्षके भीतर ही हेतुसे साध्यकी सिद्धि हो जाती है, इसलिये यहाँ पक्षके बाहर दृष्टांतके द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता)। 'जो अनन्त धर्मात्मक नहीं होता, वह सत् भी नहीं होता, जैसे आकाशका फूल' । आकाशके फूलमें अनन्त धर्म नहीं रहते, इसलिये वह सत् भी नहीं है । 'सत्त्वान्यथानुपपत्तेः' यह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जहाँ जहाँ साध्य नहीं रहता, वहाँ वहाँ साधन नहीं रहता। क्योंकि 'जहाँ-जहाँ सत् है, वहाँ वहाँ अनन्त धर्म पाये जाते हैं' इस अन्वयव्याप्तिमें दिया जानेवाला प्रत्येक दृष्टांत पक्षमे ही गर्भित हो जाता है । अतएव यहाँ अन्वयव्याप्ति न बताकर केवल व्यतिरेक व्याप्ति बताई गई है।
ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, आठ मध्य प्रदेशोंकी स्थिरता, अमूर्तत्व, असंख्यात प्रदेशीपना
अन्तःपक्षमध्ये व्याप्तिः साधनस्य साध्याक्रान्तत्वमन्ताप्तिः । तयैव साध्यस्य गम्यस्य सिद्धेः प्रतीतेः । अयमर्थः । अन्तर्व्याप्तः साध्यसंसिद्धिशक्ती बाह्यव्याप्तवर्णनं वन्ध्यमेव । साध्यसंसिद्धयशक्तौ बाह्यव्याप्तेवर्णन व्यर्थमेव । तत्र सर्वकालं जीवाष्टमध्यमप्रदेशाः निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव । केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा स्थिता एव। व्यायामदुःखपरितापोद्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवजिता इतरे प्रदेशा अवस्थिता एव । शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिचाश्चेति । तत्त्वार्थराजवतिके पृ० २०३
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ छाया-जीवः उपयोगमयः अमूर्ति कर्ता स्वदेहपरिमाणः ।
भोक्ता संसारस्थः सिद्धः स विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ॥ द्रव्यसंग्रह २
जीवसिद्धिः चार्वाकं प्रतिज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणं नैयायिक प्रति, अमूर्तजीवस्थापन भट्टचार्वाकद्वयं प्रति; कर्मकर्तृत्वस्थापनं साख्यं प्रति; स्वदेहप्रमितिस्थापनं नैयायिकमोमांसकसांख्यत्रयं प्रति; कर्मभोक्तृत्वव्याख्यानं बौद्धं प्रति; संसारस्य व्याख्यानं सदाशिवं प्रति; सिद्धत्वव्याख्यानं भट्टाचार्वाकद्वयं प्रति; ऊर्ध्वगतिस्वभावकथनं माण्डलिकग्रन्थकारं प्रति, इति मतार्थो ज्ञातव्यः । द्रव्यसंग्रहवृत्ती।
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