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________________ टीकाकार मल्लिषेण स्यान्नास्ति अवक्तव्य, मोर स्यादस्तिना स्तिअवक्तव्य के भेदसे सकलादेश और विकलादेश प्रमाणसप्तभंगी और नय सप्तभंगीके सात सात भेदोंमें विभक्त है । 23 ४ ) स्याद्वादियोंके नतमें स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तुमें अस्तित्व और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षा नास्तित्व है । जिस अपेक्षासे वस्तुमें अस्तित्व है, उसी अपेक्षासे वस्तुमें नास्तित्व नहीं है। अतएव सप्तभंगी नयमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक दोप नहीं आ सकते । ५ ) द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा वस्तु नित्य, सामान्य, अवाच्य, और सत् हैं, तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्य, विशेप, वाच्य और असत् है । अतएव नित्यानित्यवाद, सामान्यविशेपवाद, अभिलाप्यानभिलाप्यवाद तथा सदसद्वाद इन चारों वादोंका स्याद्वाद में समावेश हो जाता है । ( ६ ) नयरूप समस्त एकांतवादों का समन्वय करनेवाला स्याद्वादका सिद्धांत ही सर्वमान्य हो सकता है। ( ७ ) भावाभाव, द्वैताद्वैत, नित्यानित्य आदि एकांतवादोंमें सुख-दुख, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष आदिको व्यवस्था नहीं घनती । ( ८ ) वस्तु के अनन्त धर्मोमेंसे एक समय में किसी एक धर्मकी अपेक्षा लेकर वस्तुके प्रतिपादन करनेको नय कहते हैं । इसलिये जितने तरहके वचन होते हैं, उतने ही नय हो सकते है । नयके एकसे लेकर संख्यात भेद तक हो सकते हैं । सामान्यसे नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात भेद किये जाते हैं। न्याय-वैशेषिक केवल नैगमनयके, अद्वैतवादी और सांख्य केवल संग्रहनयके, चार्वाक केवल व्यवहारमयके, बौद्ध केवल ऋजुसूत्रनयके, और वैयाकरण केवल शब्दनयके माननेवाले हैं । प्रमाण सम्पूर्ण रूप होता है । नयवाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलनेको प्रमाण कहते हैं । प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाणके दो भेद होते हैं । ( ९ ) जितने जीव व्यवहारराशिसे मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अनादि निगोदको अव्यवहारराशिसे निकलकर व्यवहारराशिमें आ जाते हैं, और यह अव्यवहारराशि आदिरहित है, इसलिये जीवोंके सतत मोक्ष जाते रहनेपर भी संसार जीवोंसे कभी खाली नहीं हो सकता । (१०) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवत्वको सिद्धि । ( ११ ) प्रत्येक दर्शन नयवादमें गर्भित होता है । जिस समय नयरूप दर्शन परस्पर निरपेक्ष भावसे वस्तुका प्रतिपादन करते हैं, उस समय ये दर्शन परसमय कहे जाते हैं। जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियां एक समुद्र में जाकर मिलती है, उसी तरह अनेकांत दर्शन में सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनोंका समन्वय होता है, इसलिये जैनदर्शन स्वसमय है । श्लोक ३०-३२ यहाँ महावीर भगवानको स्तुतिका उपसंहार करते हुए अनेकांतवादसे ही जगतका उद्धार होनेकी शक्यताका प्रतिपादन किया गया है ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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