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________________ जैनदर्शनमें स्याद्वादका स्थान एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुत्वमितरेण ।। अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थानमिव गोपी॥ ( अमृतचन्द्र ) स्याद्वादका मौलिक रूप और उसका रहस्य-विज्ञानने इस बातको भले प्रकार सिद्ध कर दिया है कि जिस पदार्थको हम नित्य और ठोस समझते हैं, वह पदार्थ बड़े वेगसे गति कर रहा है, जो हमें काले, पोले, लाल आदि रंग दिखाई पड़ते है, वे सब सफेद रंगके रूपान्तर है, जो सूर्य हमें छोटासा और बिलकुल पास दिखाई देता है, वह पृथिवी मंडलसे साढ़े बारह लाख गुना बड़ा और यहाँसे नौ करोड़ तीस लाख मीलकी ऊँचाईपर है ! इससे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि हम अनन्त समय बीत जानेपर भी ब्रह्माण्डकी छोटीसे छोटी वस्तुओंका भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके, तो जिसको हम दार्शनिक भापामें पूर्ण सत्य ( Absolute ) कहते हैं, उसका साक्षात्कार करना कितना दुष्कर होना चाहिये । भारतके प्राचीन तत्त्ववेत्ताओंने तत्त्वज्ञान संबंधी इस रहस्यका ठीक-ठीक अनुभव किया था। इसीलिये जब कभी आत्मा, परब्रह्म, पूर्ण सत्य आदिके विषयमें पूर्वकालकी परिपदोंमें प्रश्नोंकी चर्चा उठती, तो 'नैषा तर्केण मतिरापनेया (कठ), 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन' ( मुण्डक ), 'सव्वे सरा नियटुंति तक्का तत्थ न विज्जइ' ( आचारांग), 'परमार्थो हि आर्याणां तूष्णींभावः (चन्द्रकीर्ति )-'वह केवल अनुभवगम्य है, वह वाणी और मनके अगोचर है, वहाँ जिह्वा रुक जाती है, और तर्क काम नहीं करती, वास्तवमें तूष्णींभाव ही परमार्थ सत्य है', आदि वाक्योंसे इन शंकाओंका समाधान किया जाता था । इसका मतलब यह नहीं कि भारतीय ऋषि अज्ञानवादी थे, अथवा उनको पूर्ण सत्यका यथार्थ ज्ञान नहीं था। किन्तु इस प्रकारके समाधान प्रस्तुत करनेसे उनका अभिप्राय था कि पूर्ण सत्य तक पहुँचना तलवारको धार पर चलने के समान है, अतएव इसकी प्राप्तिके लिये अधिकसे अधिक साधनाकी आवश्यकता है। वास्तवमें जितना-जितना हम पदार्थों का विचार करते हैं, उतने ही पदार्थ विशीर्यमाण दृष्टिगोचर होते हैं। महर्षि सुकरातके शब्दोंमें, हम जितनाजितना शास्त्रोंका अवलोकन करते हैं, हमें उतना हो अपनी मूर्खताका अधिकाधिक आभास होता है। जैनदर्शनका स्याद्वाद भी इसी तत्त्वका समर्थन करता है । जैन दार्शनिकोंका सिद्धांत है कि मनुष्यकी शक्ति बहुत अल्प हैं, और बुद्धि बहुत परिमित है। इसलिये हम अपनी छद्मस्थ दशामें हजारों-लाखों प्रयत्न करनेपर भी ब्रह्माण्डके असंख्य पदार्थोंका ज्ञान करने में असमर्थ रहते हैं। हम विज्ञानको हो लें। विज्ञान अनन्त समयसे विविध रूपमें प्रकृतिका अभ्यास करने में जुटा है, परन्तु हम अभी तक प्रकृतिके एक अंश मात्रको भी पूर्णतया नहीं जान सके । दर्शनशास्त्रकी को भी यही दशा है। सृष्टिके आरंभसे आज तक अनेक ऋषिमहर्षियोंने तत्त्वज्ञान संबंधी अनेक प्रकारके नये-नये विचारोंकी खोज की, परन्तु हमारी दार्शनिक गुत्थियां आज भी पहलेकी तरह उलझो पड़ी हुई हैं। स्याद्वाद यही प्रतिपादन करता है कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता, वह पदार्थों की अमुक अपेक्षाको लेकर ही होता है, इसलिये हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है। प्रत्येक पदार्थमें अनन्त धर्म हैं। इन अनन्त धर्मोमेंसे हम एक समयमें कुछ धर्मोंका ही ज्ञान कर सकते हैं, और दूसरोंको भी कुछ धर्मोंका हो प्रतिपादन कर सकते है। जैन तत्त्ववेत्ताओंका कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथीके भिन्न भिन्न अवयवोंकी हाथसे टटोलकर हाथीके उन भिन्न-भिन्न अवयवोंको ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर विवाद उत्पन्न करते हैं, इसी प्रकार संसारका प्रत्येक दार्शनिक सत्यके केवल अंशमात्रको ही जानता है, और सत्यके इस अंशमात्रको सम्पर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद और वितण्डा खड़ा करता है। यदि संसारके दार्शनिक अपने एकान्त १. पश्चिमके विचारक ड्रडले ( Bradley ), बर्गस ( Bergson ) आदि विद्वानोंने भी सत्यको बुद्धि और तर्कके बाह्य कहकर उसे Experience और Intution का विषय बताया है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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