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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २०] स्याद्वादमञ्जरी १९३ परिज्ञातु शक्याः, तस्यैन्द्रियकत्वात् । मुखप्रसादादिचेष्टया तु लिङ्गभूतया पराभिप्रायस्य निश्चये अनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य बलादापतितम् । तथाहि-मद्वचनश्रवणाभिप्रायवानयं पुरुषः, तादृग् मुखप्रसादादिचेष्टान्यथानुपपत्तेरिति । अतश्च हहा प्रमादः। हहा इति खेदे । अहो तस्य प्रमादः प्रमत्तता, यद्नुभूयमानमप्यनुमानं प्रत्यक्षमात्राङ्गीकारेणापह्नते ॥ अत्र संपूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एवात्मनेपदम् , अत्र तु कर्मास्ति तत्कथमत्रानश् । अत्रोच्यते । अत्र संवेदितुं शक्तः संविदान इति कार्यम् । “वयःशक्तिशीले"१ इति शक्तौ शानविधानात् । ततश्चायमर्थः । अनुमानेन विना पराभिसंहितं सम्यग् वेदितुमशक्तस्येति । एवं परबुद्धिज्ञानान्यथानुपपत्त्यायमनुमानं हठाद् अङ्गीकारितः॥ तथा प्रकारान्तरेणाप्ययमङ्गीकारयितव्यः। तथाहि-चार्वाकः काश्चित् ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाव्यभिचारिणीरुपलभ्य, अन्याश्च विसंवादित्वेन व्यभिचारिणीः पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं प्रमाणतेतरते व्यवस्थापयेत : न च संनिहितार्थवलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापक निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते । न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद् यथादृष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानीन्तनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकम् परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमानरूपमुपासीत । है। अतएव लिंगभूत मुख आदिको चेष्टासे दूसरेके अभिप्रायको जाननेके लिये अनुमान प्रमाणको स्वीकार करनेकी अनिच्छा होनेपर भी प्रत्यक्षके अतिरिक्त अनुमान प्रमाणको जबरन मानना पड़ता है। तथाहि-'यह पुरुप मेरे वचनोंको सुननेको इच्छा रखता है, क्योंकि यदि उसकी उक्त इच्छा न होती तो उसकी मुखप्रसाद आदि रूप चेष्टायें न दिखाई देतीं'-इस प्रकारका ज्ञान अनुमानके विना नहीं होता। खेद है कि चार्वाक लोग इस प्रकार अनुमान प्रमाणका अनुभव करते हुए भी अनुमानको उड़ाकर केवल प्रत्यक्षको ही स्वीकार करना चाहते हैं। शंका-सं-विद् धातु अकर्मक होनेपर आत्मनेपदमें ही प्रयुक्त होती है, इसलिये यहाँ 'पराभिसन्धिम्' कर्मके होते हुए सं-विद् धातुमें 'आनश्' प्रत्यय होकर 'संविदानस्य' शब्द नहीं बन सकता । समाधानजो जाननेके लिये समर्थ हो, उसे 'संविदान' कहते है। यहाँ "वयःशक्तिशीले" सूत्रसे सामर्थ्यके अर्थमें 'शान' प्रत्यय होनेसे 'संविदान' शब्द बना है। इसलिये यहाँ यह अर्थ होता है कि नास्तिक लोग दूसरे लोगोंके अभिप्रायको सम्यक्प से समझनेमें असमर्थ ( असंविदानस्य ) हैं, अतएव दूसरेके अभिप्रायको जाननेके लिये अनुमान प्रमाण अवश्य मानना चाहिये। (क) तथा, प्रकारान्तसे भी अनुमान प्रमाण अंगीकार करना आवश्यक है। तथाहि-संवादी होनेके कारण कुछ ज्ञानव्यक्तियोंको अव्यभिचारी, तथा विसंवादी होनेके कारण अन्य ज्ञानव्यक्तियोंको व्यभिचारी जानकर, पुनः कालान्तरमें संवादी एवं विसंवादी ज्ञानव्यक्तियोंकी प्रमाणता और अप्रमाणताका चार्वाक अवश्यमेव निर्णय कर सकता है। किन्तु पूर्व एवं अपरकालमें उत्पन्न होनेवाले ज्ञानव्यक्तियोंके प्रामाण्य और अप्रामाण्यका निर्णय करनेमें साधनभूत समीपस्थ अर्थके बलसे उत्पन्न होनेवाले पूर्व एवं अपर कालवर्ती पदार्थोंके संबंधसे शून्य प्रत्यक्षको लक्ष्य करनेके लिय वह समर्थ नहीं है । अपने अनुभवका विषय बने हुए ज्ञानव्यक्तियोंका दूसरेके लिये प्रमाण्य और अप्रामाण्यका निश्चय करनेके लिये चार्वाक समर्थ नहीं है । (ख) चार्वाक लोग प्रत्यक्षसे दूसरोंके प्रति ज्ञानको प्रमाण अथवा अप्रमाण नहीं ठहरा सकते । अतएव पूर्व कालमें जाने हुए ज्ञानकी समानता देखकर वर्तमान कालके ज्ञानको प्रमाण अथवा अप्रमाण ठहरानेके लिये प्रत्यक्षके अतिरिक्त अनुमानके रूपमें कोई दूसरा प्रमाण अवश्य मानना चाहिये । प्रत्यक्षके अतिरिक्त दूसरा प्रमाण अनुमान ही हो १. हैमसूत्रे ५-२-२४ २५
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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