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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालाया [अन्य. यो. व्य. श्लोक २० परलोकादिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तुम् , संनिहितमात्रविषयत्वात् तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिषिध्य नायं सुखमास्ते, प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति डिम्भहेवाकः ॥
किञ्च, प्रत्यक्षस्याप्यर्थाव्यभिचारादेव प्रामाण्यम् , कथमितरथा स्नानपानावगाहनाद्यर्थक्रियाऽसमर्थे मरुमरीचिकानिचयचुम्बिनि जलज्ञाने न प्रामाण्यम् ? तच्च अर्थप्रतिवद्धलिङ्गशब्दद्वारा समुन्सज्जतोरनुमानागमयोरप्याव्यभिचारादेव किं नेष्यते ? व्यभिचारिणोरप्यनयोर्दर्शनाद् अप्रामाण्य मिति चेत् , प्रत्यक्षस्यापि तिमिरादिदोषाद् निशीथिनीनाथयुगलावलम्बिनोऽप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राप्रामाण्यप्रसङ्गः। प्रत्यक्षाभासं तदिति चेत् , इतरत्रापि तुल्यमेतत् अन्यत्र पक्षपातात् । एवं च प्रत्यक्षमात्रेण वस्तुव्यवस्थानुपपत्तेः तन्मूला जीवपुण्यापुण्यपरलोकनिषेधादिवादा अप्रमाणमेव ।।
एवं नास्तिकाभिमतो भूतचिद्वादोऽपि निराकार्यः। तथा च द्रव्यालङ्कारकारौ उपयोगवर्णने–“न चायं भूतधर्मः सत्त्वकठिनत्वादिवद् मद्याङ्गेषु भ्रम्यादिमदशक्तिवद् वा प्रत्येकमनुपलम्भात् । अनभिव्यक्तावात्मसिद्धिः। कायाकारपरिणतेभ्यस्तेभ्यः स उत्पद्यते इति चेत् , कायपरिणामोऽपि तन्मात्रभावी न कादाचित्कः। अन्यस्त्वात्मैव स्यात् । अहेतुत्वे न देशादि
सकता है। (ग) प्रत्यक्ष प्रमाणसे परलोक आदिका निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष पासके पदार्थोंको ही जान सकता है। परलोकका अभाव माने विना चार्वाक लोगोंको शांति नहीं मिलती, और साथ ही वे लोग प्रत्यक्षके अतिरिक्त अन्य प्रमाण न माननेको भी हठ करते है-यह कैसी बालचेष्टा है !
तथा, प्रत्यक्षका प्रामाण्य (ज्ञेयार्थको जाननेकी क्रियाकी-प्रमितिकी-उत्पत्तिमें साधकतम ) प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञेय पदार्थके ज्ञानका अविसंवादित्व होनेपर ही सिद्ध होता है। यदि प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञेय पदार्थका ज्ञान अविसंवादी न होने पर भी प्रत्यक्षका प्रामाण्य सिद्ध होता हो तो स्नान, पान, अवगाहन आदि प्रयोजन की निष्पत्ति करने में असमर्थ मृगतृष्णा विषयक जलज्ञानमें प्रामाण्य कैसे नहीं हो सकता ? अर्थके साथ प्रतिबद्ध ( अविनाभाव युक्त ) ऐसे हेतु और शब्दके द्वारा उत्पन्न अनुमान एवं आगमके द्वारा ज्ञात पदार्थके ज्ञानकी अविसंवादिता होनेसे इन दोनोंका प्रामाण्य क्यों स्वीकार नहीं किया जाता? यदि कहो कि अनुमान और आगममें ज्ञात पदार्थक ज्ञानकी अविसंवादिता नहीं देखी जाती इसलिये उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता, तो इस प्रकार प्रत्यक्षमें भी तिमिर आदि नेत्ररोगके कारण एक चन्द्रमाका दो चन्द्रमा रूप ज्ञान होता है, इसलिये प्रत्यक्षको भी सर्वत्र अप्रमाण ही मानना चाहिये। यदि कहो कि नेत्ररोगके कारण एक चन्द्रमाके स्थानपर दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं, इसलिये एक चन्द्रमामें दो चन्द्रका ज्ञान प्रत्यक्षाभास है, तो इसी तरह हम सदोष अनुमानको अनुमानाभास, और सदोष आगमको आगमाभास कहते है । अतएव केवल प्रत्यक्ष प्रमाणसे पदार्थोका निश्चित स्वरूप नहीं जाना जा सकता, इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाणका अवलम्बन लेकर जीव, पुण्य, पाप, परलोक आदिका निषेध करनेवाले दर्शन अप्रमाण ही हैं।
इससे नास्तिक लोगोंके भूतचिद्वाद (पांच भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति) का भी निराकरण करना चाहिये। द्रव्यालंकारके (दो) कर्ता उपयोगका वर्णन करते समय कहते हैं-"जिस प्रकार सत्त्व,कठिनत्व आदि भूतोंके धर्म हैं, अथवा जिस प्रकार मादक द्रव्योंमें थकावट एवं मद उत्पन्न करनेवाली शक्ति होती है, उसी प्रकार पंच महाभूतों से प्रत्येक भूतमें चैतन्य नहीं पाया जाता, अतएव वह भूतधर्म नहीं है । यह चैतन्य भूतोंमें अभिव्यक्त नहीं होता, अतएव आत्माकी सिद्धि होती है । चार्वाक-जिस समय पृथिवी आदि पांच महाभूत शरीर रूपमें परिणत होते हैं, उसी समय उनमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है । जैन-यह ठीक नहीं। क्योंकि यदि आप लोग पृथिवी आदिके मिलनेसे ही शरीरका परिणमन मानते हैं, तो वह अनित्य नहीं होता (शरीरके अनित्य न होनेके कारण उसकी उत्पत्ति होना असंभव है, अतएव चैतन्य धर्मकी भी उत्पत्ति नहीं होती )। और यदि पृथिवी आदिके अतिरिक्त चैतन्य कोई भिन्न वस्तु है, तो उसे आत्मा कहना चाहिये । यदि चैतन्य