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________________ १९२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो . व्य. श्लोक २० विनानुमानेन पराभिसन्धिमसंविदानस्य तु नास्तिकस्य । न साम्प्रतं वक्तुमपि क्व चेष्टा क दृष्टमात्रं च हहा प्रमादः ॥२०॥ प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति मन्यते चार्वाकः। तत्र सन्नह्यते । अनु पश्चाद् लिङ्गसंबन्धग्रहणस्मरणानन्तरम् मीयते परिच्छिद्यते देशकालस्वभावविप्रकृष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषेण इत्यनुमानं । प्रस्तावात् स्वार्थानुमानम् । तेनानुमानेन लैङ्किप्रामाणेन विना पराभिसन्धि पराभिप्रायम् , असंविदानस्य सम्यग् अजानानस्य । तुशब्दः पूर्ववादिभ्यो भेदद्योतनार्थः। पूर्वेषां वादिनामास्तिकतया विप्रतिपत्तिस्थानेषु क्षोदः कृतः, नास्तिकस्य तु वक्तुमपि नौचिती कुत एव तेन सह क्षोद इति तुशब्दार्थः। नास्ति परलोकः पुण्यम् पापम् इति वा मतिरस्य । "नास्तिकास्तिकदैष्टिकम्" इति निपातनात् नास्तिकः। तस्य नास्तिकस्य लौकायतिकस्य, मपि न सांप्रतं वचनमप्युच्चारयितु नोचितम् । ततस्तूष्णींभाव एवास्य श्रेयान, दूरे प्रामाणिकपरिषदि प्रविश्य प्रमाणोपन्यासगोष्ठी॥ वचनं हि परप्रत्यायनाय प्रतिपाद्यते। परेण चाप्रतिपित्सितमर्थं प्रतिपादयन् नासौ सतामवधेयवचनो भवति, उन्मत्तवत् । ननु कथमिव तूष्णीकतैवास्य श्रेयसी यावता चेष्टाविशेषादिना प्रतिपाद्यस्याभिप्रायमनुमाय सुकरमेवानेन वचनोच्चारणम् इत्याशङ्कयाह क्व चेष्टा क्व दृष्टमात्रं च इति । क्वेति बृहदन्तरे। चेष्टा इङ्गितम् । पराभिप्रायस्यानुमेयस्य लिङ्गम् । क्व च दृष्टमात्रम् । दर्शनं दृष्टं । भावे क्तः। दृष्टमेव दृष्टमात्रम् प्रत्यक्षमात्रम् , तस्य लिङ्गनिरपेक्षप्रवृत्तित्वात् । अत एव दूरमन्तरमेतयोः । न हि प्रत्यक्षेणातीन्द्रियाः परचेतोवृत्तयः श्लोकार्थ-अनुमानके बिना चार्वाक लोग दूसरेका अभिप्राय नहीं समझ सकते । अतएव चार्वाक लोगोंको बोलनेकी चेष्टा भी नहीं करनी चाहिये। क्योंकि चेष्टा और प्रत्यक्ष दोनोंमें बहुत अन्तर है। यह कितना प्रमाद है ! व्याख्यार्थ-चार्वाक-केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। इसलिये पांच इन्द्रियोंके विषयके वाह्य कोई वस्तु नहीं है । जैन-जिसके द्वारा अविनाभाव सम्बन्धके स्मरणपूर्वक देश, काल और स्वभाव सम्बन्धो दूर पदार्थोंका ज्ञान हो, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं (अनु पश्चात् मीयते परिच्छिद्यते) स्वार्थानुमान परोपदेशके बिना होता है, और परार्थानुमानमें दूसरोंको समझानेके लिये पक्ष और हेतुका प्रयोग किया जाता है। अनुमान प्रमाणके बिना दूसरोंका अभिप्राय समझमें नहीं आ सकता। अब तकके श्लोकोंमें आस्तिक मतका खंडन किया गया है। परलोक, पुण्य और पापको न माननेवाले नास्तिक चार्वाक लोग वचनोंका उच्चारण भी नहीं कर सकते, अतएव नास्तिकोंके लिये प्रामाणिक पुरुषोंकी सभासे दूर रह कर मौन रहना ही श्रेयस्कर है। "नास्तिकास्तिकदैष्टिकम्" इस निपात सत्रसे नास्तिक शब्द बनता है। __ दूसरोंको ज्ञान करानेके लिये ही वचनोंका प्रयोग किया जाता है। दूसरेके द्वारा अप्रतिपित्सित ( जिसे जानने की इच्छा न हो) अर्थको प्रतिपादन करनेवालेका वचन उन्मत्त पुरुषके वचनके समान आदरणीय नहीं हो सकते। 'इसका मौन रहना ही कैसे श्रेयस्कर हो सकता है ? दूसरेके अनुमानका विषय बने हुए अभिप्रायको जाननेकी चेष्टाविशेष आदिसे, जिसको प्रतिपादन करना होता है, उसका अभिप्राय जानकर, उसके द्वारा वचनोच्चारण करना ठीक है'-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं। कहाँ चेष्टा (इंगित ) और कहाँ प्रत्पक्षदर्शन ! दूसरेके अभिप्रायको बतानेवाली चेष्टामें और प्रत्यक्षसे किसी पदार्थको जाननेमें बहुत अन्तर है। क्योंकि चेष्टा दूसरेके अभिप्रायको जाननेमें लिंग है, और प्रत्यक्ष लिंगके बिना ही उत्पन्न होता है। प्रत्यक्षसे इन्द्रियोंके बाह्य दूसरेके मनका अभिप्राय नहीं जाना जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य ही होता १. अनुमानं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च। तत्र हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणकारकं साध्यविधानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारे ३-१०, २३ । २ हैमसूत्रे ६-४-६६ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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