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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १९ ] स्याद्वादमञ्जरी १८९ पञ्च रूपादिविज्ञानान्यविकल्पकानि षष्ठं च विकल्पविज्ञानम् । तेन सह जातः समानकालश्चेतनाविशेषोऽहङ्कारास्पद्मालयविज्ञानम् । तस्मात् पूर्वशक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासनेति ॥ तदपि न । अस्थिरत्वाद्वासकेनासंबन्धाच्च । यश्चासौ चेतनाविशेषः पूर्वचित्तसहभावी, स न वर्तमाने चेतस्युपकारं करोति । वर्तमानस्याशक्यापनेयोपमेयत्वेनाविकार्यत्वात् । तद्धि यथाभूतं जायते तथाभूतं विनश्यतीति । नाप्यनागते उपकारं करोति । तेन सहासंबद्धत्वात् । चित्तका उत्पन्न होना ही वासना है । तथाहि[-रूप आदिको अपना विषय बनानेवाला प्रवृत्तिविज्ञान संज्ञा वाला जो पूर्व चित्त है, वह छह प्रकारका है— पाँच अविकल्पक रूप आदि विज्ञान और छठा विकल्पविज्ञान | इस प्रवृत्तिविज्ञान रूप पूर्व चित्तके साथ उत्पन्न अतएव समानकाल वाला, अहंकारका कारणभूत चेतनाविशेष आलयविज्ञान है । इस आलयविज्ञान रूप चेतनाविशेषसे पूर्व चित्तकी - पूर्व चित्त द्वारा जंनित शक्तिविशिष्ट चित्तको उत्पत्ति होना वासना है । ( प्रवृत्तिविज्ञान और आलयविज्ञान दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं । आलय विज्ञानसे प्रवृत्तिविज्ञानकी शक्तिविशिष्ट जिस चित्त ( ज्ञान ) की उत्पत्ति होती है, वही वासना है । जिस प्रकार पवन के द्वारा समुद्र में लहरें उठती हैं, उसी तरह अहंकारसंयुक्त चेतना ( आलयविज्ञान ) में आलम्बन, समनन्तर सहकारी और अधिपति प्रत्ययोंद्वारा प्रवृत्तिविज्ञान रूप धर्मं उत्पन्न होता है । शब्द आदि ग्रहण करनेवाले पूर्व चित्तको प्रवृत्तिविज्ञान कहते हैं । यह प्रवृत्तिविज्ञान शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और विकल्पविज्ञानके भेदसे छह प्रकारका है । शब्द, स्पर्श आदिको ग्रहण करनेवाले पाँच विज्ञानोंको निर्विकल्प ( जिस ज्ञानमें विशेषाकार रूप नाना प्रकारके भिन्न-भिन्न पदार्थ प्रतिभासित हों) और विकल्पविज्ञानको सविकल्प ( जिस ज्ञानमें सब पदार्थ विज्ञान रूप प्रतिभासित हों ) कहा गया । इन्हीं ज्ञानोंको बौद्ध लोग चित्त कहते हैं । सौत्रान्तिक बौद्धोंके मतमें प्रत्येक वस्तुके बाह्य और आन्तर दो भेद हैं । बाह्य भूत और भौतिकके भेदसे दो प्रकारका है। पृथ्वी आदि चार परमाणु भूत हैं, और रूप आदि और चक्षु आदि भौतिक हैं। आन्तर चित्त और चैत्तिकके भेदसे दो प्रकारका है। विज्ञानको चित्त अथवा चैत्तिक, और बाकीके रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार स्कन्धोंको चैत्त कहते हैं । प्रवृत्तिविज्ञानके साथ एक कालमें उत्पन्न होनेवाले अहंकारसे युक्त चेतनाको आलयविज्ञान कहते हैं । इस आलयविज्ञानसे पूर्वक्षणसे उत्पन्न चेतनाकी शक्तिविशिष्ट उत्तर चित्त उत्पन्न होता है । इसी आलयविज्ञानको वासना कहा है ) । समाधान- यह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रत्येक चित्तक्षण क्षणिक होनेके कारण अस्थिर होता हैअन्वयी नहीं होता, तथा वासक - वासनाजन्य आलयविज्ञान रूप चित्तक्षणके साथ उसके सम्बन्धका अभाव रहता । तथा पूर्वचित्तके ( प्रवृत्तिविज्ञानके ) साथ उत्पन्न होनेवाली चेतनाविशेष ( आलयविज्ञान ) वर्तमान ( क्षणिक ) चित्तक्षण में विशेषको उत्पन्न नहीं कर सकती। क्योंकि बौद्धों के मत में वर्तमान चित्तक्षणके क्षणिक होनेसे, उसकी उत्पत्ति और विनाश असंभव होनेके कारण, उसमें विकार नहीं होता । वह चित्तक्षण जिस रूपसे, उत्पन्न होता है उसी रूपसे विनाशको प्राप्त हो जाता है । आलयविज्ञान भविष्यकालीन चित्तक्षणमें भी विशेष की उत्पत्ति नहीं करता, क्योंकि अनागत (भविष्य) चित्तक्षणके साथ वासक चित्तक्षणका - वासनाजनक आलयविज्ञान रूप चित्तक्षणका सम्बन्ध नहीं होता। जो असंबद्ध रहता है वह विशेषरूप विकारको उत्पन्न नहीं कर सकता ( जब आलयविज्ञान ही घटित नहीं होता तो फिर वासनाकी उत्पत्ति किससे होगी ? ) १. तत्रालयविज्ञानं नामाहमास्पदं विज्ञानं । नीलाद्युल्लेखि च विज्ञानं प्रवृत्तिविज्ञानम् । २. तरंगा ह्युदधेर्यद्वत् पवनः प्रययेरिताः । नृत्यमानाः प्रवर्तन्ते विच्छेदश्च न विद्यते ॥ आलयोधस्तथा नित्यं विषयपवनेरितः । चित्रैस्तरविज्ञानः नृत्यमानः प्रवर्तते ॥ लंकावतारसूत्रे ११ – ९९, १०० ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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