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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १९ असंबद्धं च न भावयतीत्युक्तम् । तस्मात् सौगमतमते वासनापि न घटते । अत्र च स्तुतिकारेणाभ्युपेत्यापि ताम् अन्वयिद्रव्यस्थापनाय भेदाभेदादिचर्चा विरचितेति भावनीयम् ॥ ____ अथोत्तर्रार्द्धव्याख्या। तत इति पक्षनयेऽपि दोषसद्भावात् त्वदुक्तानि भवद्वचनानि भेदाभेदस्याद्वादसंवादप्रतानि, परे कुतीर्थ्याः प्रकरणात मायातनयाः श्रयन्तु आद्रियन्ताम अत्रोपमानमाह तटादर्शीत्यादि । तटं न पश्यतीति तटादर्शी। यः शकुन्तपोतः पक्षिशावकः तस्य न्याय उदाहरणम् तस्मात् । यथा किल कथमप्यपारपारावारान्तःपतितः काकादिशकुनिशावको बहिर्निर्जगमिषया प्रवहणकूपस्तम्भादेस्तटप्राप्तये मुग्धतयोड्डीनः, समन्ताज्जलैकार्णवमेवावलोकयंस्तटमदृष्टवैव निर्वेदात् व्यावृत्य तदेव कूपस्तम्भादिस्थानमाश्रयते, गत्यन्तराभावात् । एवं तेऽपि कुतीर्थ्याः प्रागुक्तपक्षत्रयेऽपि वस्तुसिद्धिमनासादयन्तस्त्वदुक्तमेव चतुर्थं भेदाभेदपक्षमनिच्छयापि कक्षीकुर्वाणास्त्वच्छासनमेव प्रतिपद्यन्ताम् । न हि स्वस्य बलविकलतामाकलय्य वलीयसः प्रभोः शरणाश्रयणं दोषपोषाय नीतिशालिनाम् । त्वदुक्तानीति बहुवचनं सर्वेषामपि तन्त्रान्तरीयाणां पदे पदेऽनेकान्तवादप्रतिपत्तिरेव यथावस्थितपदार्थप्रतिपादनौपयिक, नान्यदिति ज्ञापनार्थम् , अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद् ग्रहीतुमशक्यत्वात् , इतरथान्धगजन्यायेन पल्लवग्राहिताप्रसङ्गात् ।।
श्रयन्तीति वर्तमानान्तं केचित्पठन्ति, तत्राप्यदोषः। अत्र च समुद्रस्थानीयः संसारः,
अंतएव आलयविज्ञानकी सिद्धि न होनेसे उससे उत्पन्न होनेवाली वासना भी नहीं बनती। यहाँ स्तुतिकारने उस वासनाको स्वीकार करके भी अन्वयो द्रव्यकी सिद्धि करनेके लिये भेद, अभेद आदिकी चर्चा उठाई है।
अतएव भेद, अभेद और अनुभय तीनों पक्षोंके सदोष होनेसे कुतीर्थिक बौद्ध मतावलम्बियोंको आपके (जिन भगवान्के) कहे हुए भेदाभेद रूप स्याद्वादका आश्रय लेना पड़ता है । जिस प्रकार किसी पक्षीका बच्चा अथाह और विशाल समुद्रके बोचमें पहुँच जानेपर अपनी मूर्खताके कारण जहाजके मस्तूल परसे उड़कर समुद्रके किनारे पर वापिस आनेकी इच्छा करता है, परन्तु वह चारों तरफ जल ही जल देखता है और कहीं भी किनारेका कोई निशान न पाकर, उपायान्तर न होनेसे फिरसे मस्तूलपर वापिस लौट जाता है; इसी प्रकार कुतीर्थिक बौद्ध लोगोंका सिद्धान्त पूर्वोक्त तीनों पक्षोंसे सिद्ध न होनेपर बौद्ध लोगोंको भेदाभेद नामक चौथे पक्षको स्वीकार करनेकी अनिच्छा होनेपर भी, अन्तमें आपके ही मतका अवलम्बन लेना पड़ता है। अपने पक्षकी निर्बलता देख कर बलवान स्वामीका आश्रय लेनेसे नीतिज्ञ पुरुषोंका दोष नहीं समझा जाता। सम्पूर्ण वादी पद-पदपर अनेकान्तवादका आश्रय लेकर ही पदार्थों का प्रतिपादन कर सकते हैं, यह बतानेके लिये श्लोकमें 'त्वदुक्तानि' पद दिया गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तुमें अनन्त स्वभाव हैं, अतएव सम्पूर्ण नय स्वरूप स्याद्वादके बिना किसी भी वस्तुका ठीक-ठीक प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। अन्यथा जिस प्रकार जन्मके अन्धे मनुष्य हाथीका स्वरूप जाननेकी इच्छासे हाथीके भिन्न-भिन्न अवयवोंको टटोल कर हाथीके केवल कान, सूंड, पैर आदिको ही हाथी समझ बैठते हैं, उसी प्रकार एकान्ती लोग वस्तुके केवल एक अंशको जान कर उस वस्तुके एक अंश रूप ज्ञानको ही वस्तुका सर्वांशात्मक ज्ञान समझने लग जाते हैं।
कुछ लोग 'श्रयन्तु' के स्थानपर 'श्रयन्ति' पढ़ते हैं। परन्तु दोनों पाठ ठीक है। समुद्रके मस्तूलपरसे उड़नेवाले पक्षीकी तरह वादी लोग अपने सिद्धान्तको पुष्ट करके मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु वे लोग अभीष्ट पदार्थोकी सिद्धि न होते देख वापिस आ कर स्याद्वादसे शोभित आपके शासनका आश्रय लेते हैं । क्योंकि स्याद्वादका सहारा लेकर ही वादी लोग संसार-समुद्रसे छुटकारा पा सकते हैं, अन्यथा नहीं ॥ यह श्लोकका अर्थ है ॥१९॥
भावार्थ-इस श्लोकमें बौद्धोंकी 'वासना' पर विचार किया गया है। बौद्ध-प्रत्येक पदार्थ क्षण