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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लोक १९
ननु आर्हतानां वासनाक्षणपरम्परयोरङ्गीकार एव नास्ति तत्कथं तदाश्रयभेदाभेदचिन्ता चरितार्था इति चेत्, नैवम् । स्याद्वादवादिनामपि हि प्रतिक्षणं नवनवपर्यायपरम्परोत्पत्तिरभिमतैव । तथा च क्षणिकत्वम् । अतीतानागतवर्तमानपर्यायपरम्परानुसंधायकं चान्वयि :द्रव्यम् । तच्च वासनेति संज्ञान्तरभागप्यभिमतमेव । न खलु नामभेदाद् वादः कोऽपि कोविदानाम् । सा च प्रतिक्षणोत्पदिष्णुपर्यायपरम्परा अन्वयिद्रव्यात् कथंचिद् भिन्ना कथंचिदभिन्ना । तथा तदपि तस्याः स्याद् भिन्नं स्यादभिन्नम् । इति पृथक्प्रत्ययव्यपदेशविषयत्वाद् भेदः, द्रव्यस्यैव च तथा तथा परिणमनादभेदः । एतच्च सकलादेशविकलादेशव्याख्याने पुरस्तात् प्रपञ्चयिष्यामः ॥
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अपि च, बौद्धमते वासनापि तावन्न घटते, इति निर्विषया तत्र भेदादिविकल्पचिन्ता । तल्लक्षणं हि पूर्वक्षणेनोत्तरक्षणस्य वास्यता । न चास्थिराणां भिन्नकालतयान्योन्यासंबद्धानां च तेषां वास्यवासकभावो युज्यते । स्थिरस्य संबद्धस्य च वस्त्रादेर्मृगमदादिना वास्यत्वं दृष्टमिति ।
अथ पूर्वचित्तसहजात् चेतनाविशेषात् पूर्वशक्तिविशिष्टं चित्तमुत्पद्यते, सोऽस्य शक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासना । तथाहि । पूर्वचित्तं रूपादिविषयं प्रवृत्तिविज्ञानं यत्तत् षड्विधं ।
सिंह दोनोंसे विलक्षण तीसरा रूप पाया जाता है, उसी तरह अनेकांत पक्ष में भेद और अभेद दोनोंसे भिन्न तीसरा पक्ष स्वीकार किया गया है ।
शंका- जैन लोगोंने वासना और क्षणपरम्पराको स्वीकार ही नहीं किया, फिर वासना और क्षणपरम्परामें भेद, अभेद आदिके विकल्प करना असंगत है । समाधान - यह ठीक नहीं। क्योंकि स्याद्वादी लोगोंने प्रत्येक द्रव्यमें क्षण-क्षण में नयी-नयी पर्यायोंकी परम्पराकी उत्पत्ति स्वीकार की है । इसीको जैन लोग क्षणपरम्परा कहते हैं । इसी प्रकार अतीत, अनागत, और वर्तमान पर्यायोंका संबंध करानेवाला नित्य द्रव्य भी जैन लोगोंने माना है । इस नित्य द्रव्यको वासना भी कह सकते हैं । अतएव पर्याय और क्षण परम्परा, तथा द्रव्य और वासनामें नाम मात्रका अन्तर है । तथा, पर्याय परंपरा नित्य द्रव्यसे कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न । नित्य द्रव्य भी प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली पर्यायपरम्परासे कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है । इस प्रकार अन्वयिद्रव्य और पर्यायके भिन्न ज्ञान और भिन्न संज्ञाका विषय होनेके कारण, दोनोंमें भेद है; तथा द्रव्य और पर्याय अभिन्न हैं, क्योंकि एक ही द्रव्य भिन्न-भिन्न रूप पर्यायोंको धारण करता है । अतएव वासना और क्षणसंततिको भी भिन्नाभिन्न ही स्वीकार करना चाहिये । द्रव्य और पर्यायके कथंचित् भेदाभेद का खुलासा सकलादेश और विकलादेशका स्वरूप वर्णन करनेके अवसरपर ( २३ वें श्लोकमें ) किया जायेगा ।
बौद्धोंके मतमें 'वासना' ही सिद्ध नहीं होती, अतएव वासना और क्षणपरम्परामें भेद आदिकी कल्पना निरर्थक है । ( वासना और क्षणसंतति इन दोनोंका सद्भाव होनेपर ही भेद आदि विकल्पका अवकाश हो सकता है । भेद आदि विकल्पोंके द्वारा तब विचार किया जा सकता है जब दोनोंका सद्भाव हो । वासनाका अभाव होनेपर एकमात्र क्षणसंततिका सद्भाव रहनेसे भेद आदि विकल्पोंके द्वारा विचार नहीं किया जा सकता ) । पूर्वक्षणके द्वारा उत्तरक्षणकी वास्यता - पूर्वक्षणके द्वारा उत्तरक्षणमें शक्तिकी उत्पाद्यताही वासनाका लक्षण है । परन्तु बौद्धोंके मतमें क्षण स्वयं अस्थिर हैं, इसलिये परस्पर भिन्न और असंबद्ध क्षणोंमें वास्य-वासक सम्बन्ध नहीं बन सकता । क्योंकि नित्य और कस्तूरीसे सम्बद्ध नित्य वस्त्रमें ही कस्तूरीसे वासना उत्पन्न हो सकती है ।
शंका-रूप आदिको विषय बनानेवाले प्रवृत्तिविज्ञान रूप पूर्व चित्तके साथ उत्पन्न आलयविज्ञान रूप चेतनाविशेषसे पूर्वचित्तकी शक्तिसे युक्त चित्त ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है । इस शक्तिविशिष्ट