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अन्य. यो. व्य. श्लोक १९] स्याद्वादमञ्जरी
१८७ न द्वयम् । यद्धि यस्मादभिन्नं न तत् ततः पृथगुपलभ्यते, तथा घटाद् घटस्वरूपम् । केवलायां वासनायामन्वयिस्वीकारः। वास्याभावे च किं तया वासनीयमस्तु । इति तस्या अपि न स्वरूपमवतिष्ठते । क्षणपरम्परामात्राङ्गीकरणे च प्राञ्च एव दोषाः ।।
न च भेदेन ते युज्येते । सा हि भिन्ना वासना क्षणिका वा स्यात् अक्षणिका वा ? क्षणिका चेत्, तर्हि क्षणेभ्यस्तस्याः पृथक्कल्पनं व्यर्थम् । अक्षणिका चेत् , अन्वयिपदार्थाभ्युपगमेनागमबाधः। तथा च पदार्थान्तराणां क्षणिकत्वकल्पनाप्रयासो व्यसनमात्रम् ।। ___अनुभयपक्षेणापि न घटेते। स हि कदाचित् एवं ब्रूयात् , नाहं वासनायाः क्षणश्रेणितोऽभेदं प्रतिपद्ये, न च भेदं किंत्वनुभयमिति । तदप्यनुचितम् । भेदाभेदयोर्विधिनिषेधरूपयोरेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरस्यावश्यं विधिभावात् अन्यतरपक्षाभ्युपगमः। तत्र च प्रागुक्त एव दोषः। अथवानुभयरूपत्वेऽवस्तुत्वप्रसङ्गः। भेदाभेदलक्षणपक्षद्वयव्यतिरिक्तस्य मार्गान्तरस्य नास्तित्वात् । अनाहतानां हि वस्तुना भिन्नेन वा भाव्यम् अभिन्नेन वा ? तदुभयातीतस्य वन्ध्यास्तनन्धयप्रायत्वात् । एवं विकल्पत्रयेऽपि क्षणपरम्परावासनयोरनुपपत्तौ पारिशेष्याद् भेदाभेदपक्ष एव कक्षीकरणीयः। न च "प्रत्येकं यो भवेद् दोषो द्वयोर्भावे कथं न सः।" इति वचनादत्रापि दोषतादवस्थ्य मिति वाच्यम् । कक्कुटसर्पनरसिंहादिवद्' जात्यन्तरत्वादनेकान्तपक्षस्य ॥
और क्षणसंततिके अभिन्न होनेसे वासना और क्षणसंतति दोनोंमेंसे किसी एकको ही मानना चाहिए दोनोंको नहीं। जो पदार्थ जिससे अभिन्न होता है, वह उससे अलग नहीं पाया जाता । जैसे घटस्वरूप घटसे अभिन्न है, इसलिये घटस्वरूप घटसे अलग नहीं पाया जाता । अतएव केवल वासनाको स्वीकार करना नित्य पदार्थको स्वीकार करनेके समान है। तथा, वास्य (क्षणसंतति) को स्वीकार न करके केवल वासनाको स्वीकार करना निष्प्रयोजन है । यदि केवल क्षणपरम्परा स्वीकार करो तो पूर्वोक्त दोष आते हैं।
(२) यदि वासना और क्षणसंततिको परस्पर भिन्न मानो तो वासना क्षणिक है, अथवा अक्षणिक ? यदि वासना क्षणिक है तो वासनाको क्षणोंसे भिन्न मानना निरर्थक है। यदि वासना अक्षणिक है तो वासना को नित्य माननेसे आपके आगमसे विरोध आता है, इसलिये पदार्थोंके क्षणिकत्वकी कल्पनाका प्रयास व्यसनमात्र है।
(३) वासना और क्षणसंततिमें भेद और अभेदसे विलक्षण भेदाभेदका अभाव ( अनुभय) भी नहीं बन सकता । क्योंकि भेद विधिरूप है, और अभेद निषेधरूप, इसलिये एकके निषेध करनेपर दूसरेको स्वीकार करना पड़ता है-भेद न माननेसे अभेद, और अभेद न मानसे, भेद मानना पड़ता है। यह ठीक नहीं है । अलग-अलग भेद और अभेद पक्ष स्वीकार करनेमें दोष दिये जा चुके हैं। तथा, वासना और क्षणसंततिका संबंध परस्पर भेदाभेदके अभावरूप मानने पर क्षणसंतति और वासनाको अवस्तु अर्थात् कल्पित ही कहना चाहिये, क्योंकि बौद्धोंके मतमें भेद और अभेदसे विलक्षण तीसरा पक्ष नहीं बन सकता। अनेकांतवादियोंको छोड़कर अन्य वादियोंके मतमें पदार्थों के परस्पर भेद और अभेदसे विलक्षण तोसरा पक्ष वंध्यापुत्रके समान, संभव नहीं है। अतएव भेद, अभेद और अनुभय तीनों विकल्पोंसे वासना और क्षणपरम्परा सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिये वासना और क्षणपरम्परामें भेदाभेद ही स्वीकार करना चाहिये । यदि कहो कि "भेद और अभेद पक्ष स्वीकार करने में जो दोष आते हैं, वे सब दोष भेदाभेद माननेमें भी आते हैं।" तो यह ठीक नहीं। क्योंकि जैसे कुक्कुटसर्पमें कुक्कुट और सर्प दोनोंसे विलक्षण, और नरसिंहमें नर और
१. यथा नरसिंह नरवसिंहत्वोभयजातिव्यतिरिक्तं नरसिंहत्वाख्यं जात्यन्तरम्, तद्वदित्यर्थः । कुक्कुटसर्पोऽपि
कश्चन कुक्कुटत्वसर्पत्वेत्युभयजातिव्यतिरिक्तः कुक्कुटसर्पत्वजातिमान् प्राणिविशेषः स्यात् ।