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अन्य. यो. व्य. श्लोक १८] स्याद्वादमञ्जरी सर्वैः स्मर्येत । स्मरणाभावे च कौतस्कुती प्रत्यभिज्ञाप्रसूतिः, तस्याः स्मरणानुभवोभयसंभवत्वात् । पदार्थप्रेक्षणप्रवुद्धप्राक्तनसंस्कारस्य हि प्रमातुः स एवायमित्याकारेण इयमुत्पद्यते ।
अथ स्यादयं दोषः, यद्यविशेषेणान्यदृष्टमन्यः स्मरतीत्युच्यते; किन्तु अन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावाद् एव च स्मृतिः। भिन्नसंतानबुद्धीनां तु कार्यकारणभावो नास्ति । तेन संतानान्तराणां स्मृतिर्न भवति । न चैकसान्तानिकीनामपि बुद्धीनां कार्यकारणभावो नास्ति, येन पूर्वबुद्धथनुभूतेऽर्थे तद्वत्तरबुद्धीनां स्मृतिर्न स्यात् । तदप्यनवदातम् , एवमपि अन्यत्वस्य तदवस्थत्वात् । न हि कार्यकारणभावाभिधानेऽपि तदपगतं, क्षणिकत्वेन सर्वासां भिन्नत्वात् । न हि कार्यकारणभावात् स्मृतिरित्यत्रोभयप्रसिद्धोऽस्ति दृष्टान्तः॥ अथ-
“यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कर्पासे रक्तता यथा" ॥
होना संभव नहीं। यदि अन्य पुरुषके द्वारा दृष्ट पदार्थका किसी अन्य पुरुषके द्वारा स्मरण किया जाता हो तो एक पुरुषके द्वारा दृष्ट पदार्थका ( जिन्होंने इस पदार्थको कभी नहीं देखा ऐसे ) अन्य सभी पुरुषोंको स्मरण हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। यदि पूर्वज्ञानके द्वारा अनुभूत पदार्थका उत्तरबुद्धियोंको स्मरण न हुआ तो प्रत्यभिज्ञान कहाँसे बन सकता है ? क्योंकि प्रत्यभिज्ञान स्मरण और अनुभव इन दोनोंसे उत्पन्न होता है । पदार्थके दर्शनसे जिसका संस्कार प्रबुद्ध हो जाता है, ऐसे प्रमाताको ही 'यह वही है' इस रूपसे प्रत्यभिज्ञान होता है।
शंका-यदि सामान्यरूपसे अन्य विज्ञानक्षणके द्वारा दृष्ट पदार्थका अन्य विज्ञानक्षण स्मरण करता है-ऐसा हमने कहा होता तो स्मृतिभंग नामका दोष आ सकता था। किन्तु पूर्वोत्तर विज्ञानक्षणोंमें भेद होनेपर भी उनमें कार्यकारण भाव होनेसे ही स्मरण होता है- अर्थात् पूर्व विज्ञानक्षणके द्वारा दृष्ट पदार्थका उत्तर विज्ञानक्षणको स्मरण होता है। अन्योन्यभिन्न संतानोंकी बुद्धियोंमें कार्यकारण भाव नहीं होता । इससे एक संतानकी बुद्धिके द्वारा दृष्ट पदार्थका उससे भिन्न संतानकी बुद्धिको स्मरण नहीं होता। तथा, एक संतानकी भी ( भिन्न-भिन्न ) बुद्धियोंमें कार्यकारण भाव नहीं होता-ऐसी बात नहीं है, जिससे पूर्वबुद्धिके द्वारा जो पदार्थ अनुभूत है, उस पदार्थका स्मरण उसकी उत्तरकालीन बुद्धियोंको न होगा।
समाधान-यह कथन भी ठीक नहीं। पूर्वोत्तर बुद्धियोंमें कार्य-कारण भाव होनेपर भी उन दोनोंमें होनेवाला भिन्नत्व जैसेका तैसा बना रहता है। पूर्वोत्तरकालीन बुद्धियोंमें कार्य-कारण माननेपर भी उनमें होनेवाले भेदका अभाव नहीं होता। क्योंकि सभी बुद्धियोंके क्षणिक होनेसे वे अन्योन्यभिन्न होती हैं। 'उनमें परस्पर भेद होनेपर भी दोनोंमें कार्य-कारण भाव होनेसे स्मृति उत्पन्न होती है'-इस विषयमें वादी-प्रतिवादी-प्रसिद्ध दृष्टान्तका सद्भाव नहीं है। (अतएव पूर्वोत्तरकालवर्ती दो भिन्न बुद्धियोंमें कार्य-कारण भावकी, उभयमान्य दृष्टांतके अभावके कारण सिद्धि न होने और उनमें भेद होनेसे, स्मृतिका प्रादुर्भाव असम्भव होनेके कारण स्मृतिभंग नामक दोष आता ही है)।
शंका-"जिस प्रकार जिस कपासमें लाल रंग द्वारा संस्कार किया जाता है, उसीमें ललाई होती है, उसी प्रकार जिस संतानमें कर्मवासना उत्पादित की गई होती है, उसी ( संतान ) में कर्मवासनाका फल रहता है"।
इस प्रकार कपासमें रक्तताका दृष्टांत विद्यमान है ।
१. कार्यकारणभावप्रतिनियमादेव स्मृत्यभावोऽपि निरस्तः । न स्मर्ता कश्चिदिह विद्यते । किं तहि स्मरणमेव
केवलमारोपवशात् । अनुभूते हि वस्तुनि विज्ञानसंताने स्मृतिबीजाधानात्कालान्तरेण संततिपरिपाकहेतोः स्मरणं नाम कार्यमुत्पद्यते । बोधिचर्यावतारपञ्जिकायां पृ. ४१५ ।