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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १८
अपि च वौद्धाः “निखिलवासनोच्छेदे विगतविपयाकारोपप्लव विशुद्धज्ञानोत्पादो मोक्षः” इत्याहुः। तच्च न घटते । कारणाभावादेव तदनुपपत्तेः । भावनाप्रच्यो 'हि तस्य कारण - मिष्यते । स च स्थिरैकाश्रयाभावाद् विशेषानाधायकः, प्रतिक्षणमपूर्ववद् उपजायमानः, निरन्वयविनाशी, गगनलङ्घनाभ्यासवत् अनासादितप्रकर्षो न स्फुटाभिज्ञानजननाय प्रभवति, इत्यनुपपत्तिरेच तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशारम्भणशक्तेरसदृशारम्भम् प्रत्यशक्तेश्च अकस्मादनुच्छेदात् । किंच, समलचित्तक्षणाः पूर्वे स्वरसपरिनिर्वाणाः, अयमपूर्वो जातः सन्तानञ्चैको न विद्यते, वन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौ न विषयभेदेन वर्तेते । तत् कस्येयं मुक्तिर्य एतदर्थं प्रयतते । अयं हि मोक्षशब्दो वन्धनविच्छेदपर्यायः । मोक्षश्च तस्यैव घटते यो वद्धः । क्षणक्षयवादे त्वन्यः क्षणो वद्धः क्षणान्तरस्य च मुक्तिरिति प्राप्नोति मोक्षाभावः ॥
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तथा स्मृतिभङ्गदोषः। तथाहि । पूर्वबुद्धधानुभूतेऽर्थे नोत्तरवुद्धीनां स्मृतिः सम्भवति । ततोऽन्यत्वात्, सन्तानान्तरबुद्धिवत् । न ह्यन्यदृष्टोऽर्थोऽन्येन स्मर्यते अन्यथा एकेन दृष्टोऽर्थः
पहुँचानेवाली संतान स्वीकार की जाय, तो यदि वह संतान ज्ञानक्षणोंके अतिरिक्त कोई पृथक् वस्तु है, तो उसे आत्मा ही कहना चाहिये । यदि संतान अवस्तु है, तो वह संतान अकार्यकारी है ।
तथा बौद्ध लोग "सम्पूर्ण वासनाओंका उच्छेद हो जानेपर विषयोंके आकारोंकी विघ्न- वाघाओंसे रहित विशुद्ध ज्ञानके उत्पन्न होनेको मोक्ष” कहते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि क्षणिकवादियोंके मनमें वासना-विनाशके कारणका अभाव होनेसे, वासनाओंके विनाशकी सिद्धि न होनेसे, विशुद्ध ज्ञानोत्पाद रूप मोक्षको सिद्धि नहीं होती । भावनाओं का समूह ही समस्त वासनाओं के उच्छेदका कारण माना गया है । ( बौद्धोंके मत में 'सव पदार्थ क्षणिक हैं, सब दुख रूप हैं, सामान्य रूपसे ज्ञात न हो कर अपने असाधारण रूपसे ज्ञात होते हैं, अतएव स्वलक्षण हैं, तथा सव पदार्थ निस्वभाव होनेसे शून्य हैं' — इस प्रकार भावनाचतुष्टयकी उत्कटतासे सम्पूर्ण वासनाओंका उच्छेद हो जाना मोक्ष है ) । स्थिर - अक्षणिक-अर्थात् नित्य आत्मरूप एक आश्रयका वौद्ध मतमें अभाव होनेके कारण, विशेष - अतिशय - को उत्पन्न न करनेवाला, प्रत्येक ज्ञानक्षण में अपूर्व की भांति उत्पन्न होनेवाला, निरन्वयविनाशी, आकाशको लाँघनेके अभ्यासकी भाँति प्रकर्षको प्राप्त न करनेवाला भावनाओंका समूह, विशुद्ध ज्ञानकी उत्पत्ति करनेमें समर्थ नहीं होता, अतएव मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती । कारण कि मलसहित ( अर्थात् अशुद्ध ) ज्ञानक्षणोंकी सदृश ( अर्थात् अशुद्ध ) अन्य ज्ञानक्षणोंकी उत्पत्तिको आरंभ करनेकी स्वाभाविक शक्तिका, तथा असदृश ( अर्थात् शुद्ध ) ज्ञान क्षणोंकी उत्पत्तिको आरम्भ करनेकी शक्ति के अभावका अकस्मात् भावनाप्रचयरूप कारणके अभावमें उच्छेद नहीं होता । तथा अशुद्ध ज्ञानक्षण के स्वभावतः क्षणिक होनेके कारण नष्ट होनेवाले और अपूर्व रूपमें उत्पन्न शुद्ध ज्ञानरूप ज्ञानक्षण – ये दोनों एक सन्तान नहीं हैं । तथा, वंधका अधिकरणभूत अशुद्ध ज्ञानक्षण और मोक्षका अधिकरणभूत शुद्ध ज्ञानक्षणके परस्पर भिन्न होनेसे, ये वंधमोक्षरूप एक अधिकरणमें नहीं रह सकते — अर्थात् बंध और मोक्ष एक ज्ञानक्षणके नहीं हो सकते - जो ज्ञानक्षण वद्ध होता है वही ज्ञानक्षण मुक्त नहीं हो सकता। फिर, जो मोक्ष प्राप्तिके लिये प्रयत्न करेगा, उसे मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा ? मोक्ष शब्द बन्धनच्छेदका पर्यायवाची है, अर्थात् वन्धका अभाव होना मोक्ष है । क्षणवादियोंके मत में अन्य क्षण ( ज्ञानक्षण ) वद्ध होता है और उससे भिन्न क्षण अर्थात् भिन्न ज्ञानक्षणकी मुक्ति होती है, अतएव मोक्षका अभाव होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है ।
(५) वौद्धोंके मतमें स्मृतिभंग हो जानेका प्रसंग उपस्थित होता है । तथाहि - जिस प्रकार एक बुद्धिसन्तानके द्वारा अनुभूत पदार्थका जिसने उस पदार्थको अनुभूत नहीं किया ऐसे अन्य संतानकी बुद्धिको स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानके द्वारा अनुभूत पदार्थके विषयमें उत्तर ज्ञानक्षणोंके द्वारा स्मरण १. सर्व क्षणिकं सर्वं क्षणिकम्, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणम् स्वलक्षणं, शून्यं शून्यमिति भावनाचतुष्टयं ।