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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां । अन्य. यो. व्य. श्लोक १८ इति । कासे रक्ततादृष्टान्तोऽस्तीति चेत् , तदसाधीयः, साधनदूषणयोरसम्भवात् । तथाहिअन्वयाद्यसम्भवान्न साधनम् । न हि कार्यकारणभावो यत्र तत्र स्मृतिः कर्पासे रक्ततावदित्यन्वयः सम्भवति । नापि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति व्यतिरेकोऽपि । असिद्धत्वाचनुद्भावनाच न दूषणम् । न हि ततोऽन्यत्वात् इत्यस्य हेतोः कर्पासे रक्ततावत् इत्यनेन कश्चिदोषः प्रतिपाद्यते॥
किञ्च, यद्यनन्वयत्वेऽपि कार्यकारणभावेन स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते, तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मृत्यादिः स्यात् । अथ नायं प्रसङ्गः, एकसंतानत्वे सतीतिविशेषणादिति चेत्, तदप्युक्तं, भेदाभेदपक्षाभ्यां तस्योपक्षीणत्वात् । क्षणपरम्परातस्तस्याभेदे हि क्षणपरम्परैव सा । तथा च संतान इति न किञ्चिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । भेदे तु पारमार्थिकः अपारमार्थिको वासौ स्यात् ? अपारमार्थिकत्वेऽस्य दूषणं, अकिंचित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात् क्षणिको वा ? क्षणिकत्वे संताननिर्विशेष एवायम् , इति किमनेन स्तेनभीतस्य स्तेनान्तरशरणस्वीकरणानुकरणिना। स्थिरश्चेत् आत्मैव संज्ञाभेदतिरोहितः प्रतिपन्नः। इति न स्मृतिघंटते क्षणक्षयवादिनाम् ।।
समाधान-यह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वोत्तर बुद्धिक्षणोंमें (बौद्धों द्वारा मान्य ) कार्य-कारण भाव रूप हेतुसे स्मृतिकी उत्पत्ति होना रूप साध्यकी, न इस दृष्टांतसे सिद्धि होती है और न वह साध्य दूषित ही होता है । तथाहि-बुद्धिके पूर्वोत्तरक्षणोंमें होनेवाला कार्य-कारण भाव रूप हेतु और स्मृति इनमें अन्वय-व्यतिरेक संभव न होनेसे स्मृतिकी उत्पत्ति होना रूप साध्यकी सिद्धि नहीं होती। 'जहाँ कार्य-कारण भाव होता है, वहाँ स्मृतिका सद्भाव होता है, जैसे कपासमें रक्तता,' तथा 'जहाँ स्मृति नहीं होती, वहाँ कार्य-कारण भाव भी नहीं होता' इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं बनते। इस प्रकार स्मृतिरूप साध्य और कार्य-कारण भाव रूप हेतु इनमें अन्वय-व्यतिरेक न बननेसे उस हेतुसे स्मृतिरूप साध्यकी सिद्धि नहीं होती। 'उससे अर्थात् पूर्वबुद्धिसे उत्तरबुद्धि भिन्न होनेसे' इस हेतुके असिद्धत्व आदि दोषोंका प्रकटीकरण न होनेसे यह हेतु दूषित नहीं है। 'पूर्वबुद्धिसे उत्तरबुद्धि भिन्न होनेसे' इस हेतुके विषयमें 'जैसे कपासमें रक्तता' इस दृष्टांतके द्वारा किसी दोषका प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।
तथा, 'जहाँ कार्य-कारण भाव होता है वहाँ स्मृति होती है-इस प्रकार कार्य-कारण भावमें और स्मृतिमें अन्वयका अभाव होनेपर भी, यदि उत्तर बुद्धिक्षण और पूर्व बुद्धिक्षणमें कार्य-कारण भाव होनेसे स्मृतिकी उत्पत्तिका इष्ट होना माना गया, तो शिष्यबुद्धि और आचार्यबुद्धिमें, आचार्यबुद्धिके कारण और शिष्यबुद्धिके कार्य होनेसे, कार्य-कारण भाव होनेसे स्मृतिका सद्भाव हो जायेगा । 'शिष्यबुद्धिमें और आचार्यबुद्धिमें अन्वयका अभाव होनेपर भी उनमें कार्य-कारण भाव होनेसे स्मृति आदिके सद्भाव होनेका प्रसंग उपस्थित नहीं होता; क्योंकि शिष्य और आचार्य ये दो भिन्न संतान हैं, और हमने 'एक संतानत्व' (एक संतानत्वे सति ) विशेषणका प्रयोग किया है।' यह भी ठीक नहीं। क्योंकि भेदपक्ष औरअ भेदपक्षके द्वारा 'एकसंतानत्व' विशेषण क्षीण हो जाता है-अकिंचित्कर बन जाता है। क्षण परंपरासे उस 'एकसंतानत्व' को अभिन्न माननेपर वह क्षणपरंपरारूप ही होगा। इस प्रकार संतानके क्षणपरंपरारूप होनेसे, संतानको क्षणपरंपरा (संतानी ) ही कहना चाहिये, संतान नहीं। यदि संतान और क्षणपरंपराको भिन्न मानो, तो यह संतान वास्तविक है, या अवास्तविक ? यदि यह अवास्तविक है, तो वह अकिंचित्कर होनेसे दूषित है। यदि संतान वास्तविक है, तो वह स्थिर है, या क्षणिक ? यदि क्षणपरंपरासे भिन्न संतान क्षणिक है, तो यह संतान क्षणपरंपरासे अभिन्न ही है। इस प्रकार क्षणपरंपराको छोड़कर संतानका आश्रय लेना, एक चोरके भयसे दूसरे चोरके आश्रय लेनेके समान है। यदि वास्तविक संतानको स्थिर मानो, तो फिर संतान-संज्ञासे तिरोहित आत्मा स्वीकार करनेमें ही क्या दोष है ? अतएव क्षणिकवादियोंके मतमें स्मृति भी नहीं बनती।