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टीकाकार मल्लिषेण
(ड) वैदिक संहिता, स्मृति आदिके वाक्योंमें पूर्वापरविरोध, तथा
(इ) केवलिसमुद्धात अवस्था में जैन सिद्धांत के अनुसार आत्म व्यापकताको संगतिका प्ररूपण किया
गया है ।
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श्लोक ११-१२
इन श्लोकोंमें पूर्वमीमांसकों के निम्न सिद्धान्तोंपर विचार किया गया है
( १ ) वेदों में प्रतिपादित हिंसा धर्मका कारण नहीं हो सकती ।
( २ ) श्राद्ध करनेसे पितरोंकी तृप्ति नहीं होती ।
३ ) अपौरुषेय वेदको प्रमाण नहीं मान सकते ।
(४) ज्ञानको स्त्रपरप्रकाशक न माननेसे अनेक दूषण आते हैं, इसलिये ज्ञानको स्व और परका प्रकाशक मानना चाहिये ।
इसके अतिरिक्त इन श्लोकोंमें—
( क ) जिनमंदिर के निर्माण करतेका विधान,
( ख ) सांख्य, वेदान्त और व्यास ऋषि द्वारा याज्ञिक हिंसाका विरोध, तथा
( ग ) ज्ञानको अनुव्यवसायगम्य माननेवाले न्याय-वैशेषिकोंका खंडन किया गया है ।
श्लोक १३
इस श्लोक में ब्रह्माद्वैतवादियोंके मायावादका खंडन है । यहांपर प्रत्यक्ष प्रमाणको विधि और निषेध रूप प्रतिपादन किया है ।
श्लोक १४
इस श्लोक एकान्त सामान्य और एकान्त- विशेष वाच्य वाचक भावका खंडन करते हुए कथंचित् सामान्य और कथंचित् विशेष वाच्य वाचक भावका समर्थन किया गया है। इस श्लोक में निम्न महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन है
( १ ) केवल द्रव्यास्तिकनय अथवा संग्रहनयको माननेवाले अद्वैतवादी, सांख्य और मीमांसकोंका सामान्यैकान्तवाद मानना युक्तियुक्त नहीं है ।
( २ ) केवल पर्यायास्तिकनयको माननेवाले बौद्धोंका विशेषकान्तवाद ठीक नहीं है ।
( ३ ) केवल नैगमनयको स्वीकार करनेवाले न्याय-वैशेषिकोंका स्वतन्त्र और परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषवाद मानना ठीक नहीं है ।
तथा
( क ) शब्द आकाशका गुण नहीं है, वह पौद्गलिक है, और सामान्य विशेष दोनों रूप है ।
( ख ) आत्मा भी कथंचित् पौद्गलिक है ।
( ग ) अपोह, सामान्य अथवा विधिको शब्दार्थ नहीं मान सकते ।
श्लोक १५
इस श्लोक में सांख्योंकी निम्न मान्यताओंकी समीक्षा की गई है
( १ ) चित्शक्ति ( पुरुष ) को ज्ञानसे शून्य मानना परस्पर विरुद्ध है ।
(२) बुद्धि ( महत् ) का जड़ मानना ठीक नहीं है । अहंकारको भी आत्माका ही गुण मानना चाहिये, बुद्धिका नहीं ।