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ग्रंथ और ग्रंथकार
मल्लिपेण हरिभद्रसूरिकी कोटिके सरल प्रकृतिके उदार और मध्यस्थ विचारोंके विद्वान थे। सिद्धसेन आदि जैन विद्वानोंकी तरह मल्लिषेण भी 'सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनोंके समूहको जैनदर्शन' प्रतिपादित कर 'अन्धगजन्याय' का उपयोग करते हैं । अन्य दर्शनोंके विद्वानोंके लिये पशु, वृषभ आदि असभ्य शब्दों का प्रयोग न कर वेदान्तियोंका सम्यग्दृष्टि, व्यासका ऋषि, कपिलका परमर्षि, उदयनका प्रामाणिकप्रकाण्ड रूपसे उल्लेख करना, तथा श्वेताम्बर परंपराके अनुयायी होते हुए भी समंतभद्र, विद्यानन्द आदि दिगम्बर विद्वानों के उद्धरण निःसंकोच भावसे प्रस्तुत करना मल्लिपेणको धार्मिक सहिष्णुता के साथ उनके समदर्शीपनेको प्रमाणित करता हैा स्याद्वादमंजरीमें सर्वज्ञसिद्धिको चर्चा के प्रसंगपर भी मल्लिषेण स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति जैसे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायके विवादस्थ प्रश्नोंके विषय में मौन रहते हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि अन्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्योंकी तरह मल्लिषेणको साम्प्रदायिक चर्चाओं में रस नहीं था । अनेक वृक्षोंसे पुष्पोंको चुनने के समान, अनेक दर्शन संबंधी शास्त्रोंसे प्रमेयोंको चुन-चुनकर, निस्सन्देह मल्लिषेणसूरिने 'अकृत्रिम - बहुमति' स्याद्वादमंजरी नामकी माला गूंथकर जैनन्यायको समलंकृत किया है ।
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स्याद्वाद मंजरीका विहंगावलोकन श्लोक १-३
ये श्लोक स्तुतिरूप हैं । इनमें चार अतिशयों सहित भगवानके यथार्थवादका प्ररूपण करते हुए उनके शासनको सर्वोत्कृष्टता बताई गई है ।
तथा -
श्लोक ४-१०
इन छह श्लोकोंमें न्याय-वैशेषिकों के निम्न सिद्धांतोंपर विचार किया गया है
( १ ) सामान्य और विशेष भिन्न पदार्थ नहीं हैं ।
( २ ) वस्तुको एकान्त नित्य अथवा एकान्त- अनित्य मानना न्यायसंगत नहीं है ।
( ३ ) एक, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, स्वतंत्र और नित्य ईश्वर जगतका कर्ता नहीं हो सकता ।
(४) धर्म- धर्म में समवाय संबंध नहीं बन सकता ।
(५) सत्ता ( सामान्य ) भिन्न पदार्थ नहीं है ।
(६) ज्ञान आत्मासे भिन्न नहीं है ।
(७) आत्मा के बुद्धि आदि गुणोंके नाश होनेको मोक्ष नहीं कह सकते ।
(८) आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकती ।
( ९ ) छल, जाति, निग्रहस्थान आदि तत्त्व मोक्षके कारण नहीं हो सकते ।
(क) तम ( अंधकार ) अभावरूप नहीं है, वह आकाशकी तरह स्वतंत्र द्रव्य है, और पौद्गलिक है । ( ख ) 'अप्रच्युत, अनुत्पन्न और सदास्थिरत्व' नित्यका लक्षण मानना ठीक नहीं । 'पदार्थके स्वरूप
का नाश नहीं होना' ही नित्यका लक्षण ठीक हो सकता है ।
( ग ) किरणें गुणरूप नहीं है, उन्हें तैजस पुद्गलरूप मानना चाहिये ।
(घ) नैयायिकोंके प्रमाण, प्रमेय आदिके लक्षण दोषपूर्ण हैं ।
इसके अतिरिक्त इन श्लोकोंमें
( अ ) जैनदृष्टिसे आकाश आदिमें नित्यानित्यत्व,
(ब) पतंजलि, प्रशस्तकार और बौद्धोंके अनुसार वस्तुओंका नित्यानित्यत्व, ( स ) अनित्यैकान्तवादी बौद्धोंके क्षणिकवादमें दूषण,