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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
" देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिलनश्वराः । मेघपङ्क्त्यादयो यद्वत् एवं रागादयो मताः ॥”
इति । यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एवाप्तो भगवान् सर्वज्ञः ॥
अथ अनादित्वाद् रागादीनां कथं प्रक्षयः इति चेत् । न । उपायतस्तद्भावात् । अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् । तद्वदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन विलयोपपत्तेः । क्षीणदोषस्य च केवलज्ञानाव्यभिचारात् सर्वज्ञत्वम् ॥
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[ अन्य. यो. व्य. श्लोक १७
तत्सिद्धिस्तु - ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम्, तारतम्यत्वात्, आकाशे परिमाणतारतम्यवत् । तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, क्षितिधरकन्दराधिकरणधूमध्वजवत् । एवं चन्द्रसूर्योपरागोदिसूच कज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तिप्रभृतयोऽपि हेतवो वाच्याः । तदेवमाप्तन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनम् ।
" रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् ।
दोष क्षय हो गये हों, उसे आप्त कहते हैं, ऐसा आप्त होना संभव नहीं है । समाधान - राग आदि दोष किसी जीव में सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि हमलोगों में राग आदि दोषोंकी होनाधिकता देखी जाती है । जिसकी होनाधिकता देखी जाती है, उसका सर्वथा नाश होना संभव है । जिस प्रकार सूर्यको आच्छादित करनेवाले बादलोंमें हीनाधिकता पायी जाती है, इसलिये कहीं पर बादलोंका सर्वथा नाश भी संभव है, इसी तरह राग आदि दोषोंमें हीनाधिकता रहनेके कारण कहीं पर राग आदिका सर्वथा विनाश भी संभव है । कहा भी है
" जो पदार्थ एक देशसे नाश होते हैं, उनका सर्वथा नाश भी होता है । जिस प्रकार मेघोंके पटलों का आंशिक नाश होनेसे उनका सर्वथा नाश भी होता है, इसी प्रकार राग आदिका आंशिक नाश होनेसे उनका भी सर्वथा नाश होता है । "
जिस पुरुषविशेषमें राग आदिका सम्पूर्ण रीतिसे नाश हो जाता है, वही पुरुष विशेष आप्त भगवान् सर्वज्ञ है ।
शंका- राग आदि दोष अनादि हैं, इसलिये उनका क्षय नहीं हो सकता । समाधान - जिस प्रकार अनादि सुवर्णके मैलका खार मिट्टीके पुटपाक आदिसे नाश हो जाता है, उसी तरह अनादि राग आदि दोषोंका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयकी भावनासे नाश हो जाता है । जिस पुरुषके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं, उसके केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अतएव वीतराग भगवान् सर्वज्ञ हैं । सर्वज्ञसिद्धि-(क) ज्ञानकी हानि और वृद्धि किसी जीवमें सर्वोत्कृष्ट रूपमें पायी नहीं जाती हैं, हानि, वृद्धि होनेसे । जैसे आकाशमें परिमाणकी सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है, वैसेही ज्ञानको सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञमें पायी जाती है । ( ख ) स्वभावसे दूर परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, देशसे दूर सुमेरु पर्वत आदि, तथा कालसे दूर राम, रावण आदि किसीके प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमेय होनेसे । जो अनुमेय होते हैं, वे किसीके प्रत्यक्ष होते हैं । जिस प्रकार पर्वतकी गुफाकी अग्नि अनुमानका विषय होनेसे किसी न किसीके प्रत्यक्ष होती है, इसी प्रकार हमारे प्रत्यक्षज्ञानके बाह्य परमाणु आदि किसी न किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होने चाहिये । इस प्रकार चन्द्र और सूर्यके ग्रहणको बतानेवाले ज्योतिषशास्त्रकी सत्यता आदिसे भी सर्वज्ञकी होती है । इसलिये सर्वज्ञ आप्तका बनाया हुआ आगम ही प्रमाण है । जिस आगमका बनानेवाला सदोष होता है, वही आगम अप्रमाण होता हैं । कहा भी है
१. उपरागो ग्रहो राहुग्रस्ते त्विन्दी च पूष्णि च । इत्यमरः ।