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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १७] स्याद्वादमञ्जरी १७७ यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् "॥ इति वचनात् । प्रणेतुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेवेति सिद्ध आगमादप्यात्मा “एगे आया"' इत्यादि वचनात् । तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमैः सिद्धः प्रमाता ॥ प्रमेयं चानन्तरमेव बाह्यार्थसाधने साधितम् । तत्सिद्धौ च प्रमाणं ज्ञानम् तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विपयत्वात् इति प्रलापमात्रम् , करणमन्तरेण क्रियासिद्धेरयोगाद् लवनादिषु तथादर्शनात् । यच्च, अर्थसमकालमित्याद्युक्तम् , तत्र विकल्पद्वयमपि स्वीक्रियत एव । अस्मदादिप्रत्यक्षं हि समकालार्थाकलनकुशलम् । स्मरणमतीतार्थस्य ग्राहकम् । शब्दानुमाने च त्रैकालिकस्याप्यर्थस्य परिच्छेदके। निराकारं चैतद् द्वयमपि । न चातिप्रसङ्गः, स्वज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्तेः। शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्कारः॥ प्रमितिस्तु प्रमाणस्य फलं स्वसंवेदनसिद्धैव । न ह्यनुभवेऽप्युपदेशापेक्षा । फलं च द्विधा आनन्तर्यपारम्पर्यभेदात् । तत्रानन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञान निवृत्तिः फलम् । पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत् फलमौदासीन्यम् । शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः। इति सुव्यवस्थितं प्रमात्रादिचतुष्टयम् । ततश्च "राग द्वेष और मोहके कारण असत्य वाक्य बोले जाते हैं। जिस पुरुषके राग, द्वेष और मोहका अभाव है, वह पुरुष असत्य वचन नहीं कह सकता।" ___अतएव आगमोंके प्रणेताके निर्दोष सिद्ध होनेपर आगमसे भी "आत्मा एक है" इत्यादि वचनोंसे आत्माकी सिद्धि होती है । इसलिये प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आत्माको सिद्ध करते हैं। (२) बाह्य पदार्थोके अस्तित्व सिद्ध करनेके प्रसंगमें पिछली कारिकामें प्रमेयकी सिद्धि की जा चुकी है। ( ३ ) प्रमेयकी सिद्धि होनेपर ज्ञानके प्रमिति क्रियाके करणत्वकी सिद्धि हो जाती है । 'प्रमिति क्रियाका कारणभूत स्वपरावभासक ज्ञान प्रमेयके अभावमें निविषय ( प्रमेयशून्य ) होनेसे किसका ग्राहक होगा?' यह कथन प्रलापमात्र है। क्योंकि प्रमाणको न माननेसे प्रमिति क्रियाके करणका अभाव हो जानेके कारण 'प्रमेयके अभावमें ज्ञान जान नहीं सकता'-इस अभिप्रायको जाननेकी क्रियाकी सिद्धि, जिस प्रकार कुठार आदि रूप करणके अभावमें छेदन आदि क्रियाकी सिद्धि नहीं होती, उसी प्रकार नहीं हो सकती। 'ज्ञानका काल और पदार्थका काल समान होनेपर ज्ञान प्रमेयको जानता है या भिन्न होनेपर ?' यह जो आपलोगोंने कहा है, तो हम दोनों ही विकल्पोंको स्वीकार करते हैं। हमलोगोंके मतमें प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञानके कालमें रहनेवाले ( विद्यमान ) पदार्थोंका, स्मरण अतीत कालीन पदार्थोंका, तथा शब्द और अनुमान तीनों कालके पदार्थोंका ज्ञान करने में कुशल होते हैं। शब्द और अनुमान तीनों कालोंमें विद्यमान पदार्थको जाननेवाले होते हैं। दोनों ही ज्ञेय पदार्थके आकारसे रहित होते हैं। यहाँ अतिप्रसंग दोष नहीं आता। क्योंकि इस ज्ञानकी पदार्थों को जाननेकी जो प्रवृत्ति होती है, वह अपने अपने ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मोके विशिष्ट क्षयोपशमके कारण होती है। शून्यवादका स्थापन करनेमें जो दूसरे विकल्प प्रतिपादित किये गये हैं, उनको न मानना हो शून्यवादका तिरस्कार करना है। (४) प्रमाणको फलभूत प्रमिति स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अर्थात् अनुभवसे सिद्धि ही है । अतएव प्रमितिको सिद्ध करनेके लिये प्रमाणको आवश्यकता नहीं है। प्रमाणका फल साक्षात् और परम्पराके भेदसे दो प्रकारका होता है। पदार्थविषयक अज्ञानको निवृत्ति सभी प्रमाणोंका साक्षात् फल है। केवलज्ञानका परम्पराफल संसारसे उदासीन होना है, केवलज्ञानके अतिरिक्त शेष प्रमाणोंका परम्पराफल इष्टानिष्ट पदार्थों को छोड़ना, ग्रहण करना तथा उपेक्षा करना है । अतएव प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति ये चारों पदार्थ १. स्थानाङ्गसूत्रे १-१ । प्रकृशार्थतया असंख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः इति अभयदेवरिटीकायां । २३
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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