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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १७ ] स्याद्वादमञ्जरी १७५ पयाः, पर्यायत्वाद्, घटकुटकलशादिपर्यायवत् । व्यतिरेके षष्ठभूतादि । यश्चैषां विषयः स आत्मा । तथा अत्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसाङ्केतिकशुद्धपर्यायवाच्यः, स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति, यथा घटादिः। व्यतिरेके खरविपाणनमोऽम्भोरुहादयः। तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि, गुणत्वाद्, रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा। इत्यादि लिङ्गानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिद्धः॥ आगमानां च येप तेपामप्रामाण्यमेव । यस्त्वाप्तप्रणीत आगमःस प्रमाणमेव, कषन्छेदतापलक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात् । कषादीनां च स्वरूपं पुरस्ताद्वक्ष्यामः । न च वाच्यमाप्तः क्षीणसर्वदोपः तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि नास्तीति । यतः रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते, अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकर्षोपलम्भात् , सूर्याद्यावरकजलदपटलवत् । तथा चाहुः पटकनेकी इच्छासे बालक जिस गेंदको अपने हाथमें लेता है, वह गेंद दीवारकी ओर जानेको क्रियाका आश्रय होनेवाली होनेसे प्रेर्य-पटकने योग्य होती है, उसी प्रकार मन अभिमत विषयके साथ होनेवाले संबंधकी निमित्त भूत क्रियाका आश्रय होनेसे प्रेर्य है । इस मनकी प्रेरक आत्मा है। (७) तथा, जिस प्रकार घट, कुट, कलश आदि पर्यायें पर्यायरूप होनेसे निराश्रय नहीं होती ( उनका उपादानभूत मृत्तिका रूप विद्यमान होता है ), उसी प्रकार आत्मा, चेतन, क्षेत्रज्ञ, जीव, पुद्गल ( पुद्गल-संज्ञक जीव द्रव्य ) आदि (निष्पर्याय द्रव्य) पर्यायें पर्यायरूप होनेसे निराश्रय ( उपादानके विना ) नहीं होती। ( साध्यके अभावमें जब साधनका अभाव बताया जाता है, तब व्यतिरेकदृष्टांत होता है )। षष्ठभूत आदिका अभाव होने पर उनकी पर्यायोंका अभाव होना व्यतिरेकदृष्टांत है। ( तात्पर्य यह कि जिस प्रकार पष्ठभूतका अभाव होनेके कारण उसकी पर्यायोंके द्वारा षष्ठभूतके अस्तित्वकी सिद्धि नहीं की जा सकती, उसी प्रकार पर्यायका अभाव होनेसे पर्यायी आत्माके अभावकी सिद्धि नहीं की जा सकती। आत्माकी पर्यायोंका सद्भाव होनेसे उनके द्वारा आत्माकी सिद्धि की जा सकती है। ) इन चेतन, आत्मा आदि पर्यायोंका आश्रय आत्मा है। (८) तथा, आत्मा अस्तिरूप है, क्योंकि वह अपनी अनारोपित शुद्ध पर्यायके द्वारा वाच्य कहा जाता है । ( असमस्त अर्थात् अमिश्रित-शुद्ध । सोने और तांबेके मिश्रणसे बनाये आभूपणसे जिस प्रकार शुद्ध सुवर्णका ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार आत्माकी अशुद्ध पर्यायसे शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं होता-आत्माकी शुद्ध पर्यायसे ही आत्माका ज्ञान होता है)। जो अनारोपित शुद्ध होनेसे, जिसपर शुद्धत्वका आरोप नहीं किया गया होता, ऐसी शुद्ध पर्यायके द्वारा वाच्य होता है, वह अस्तित्वरहित नहीं होता, जैसे घट आदि (घट आदिके कपाल आदि शुद्ध पर्यायके द्वारा जिस प्रकार घट आदिका ज्ञान होता है; उसी प्रकार आत्माकी शुद्ध पर्यायके द्वारा शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है )। खरविषाण, आकाशपुष्प आदिका अभाव होनेसे उनकी अनारोपित शुद्ध पर्यायों का अभाव होना, यह व्यतिरेकदृष्टांत है। ( तात्पर्य यह कि जिस प्रकार खरविषाण आदिका अभाव होनेसे, उनकी शुद्ध पर्यायोंका अभाव होनेके कारण, उन पर्यायोंके द्वारा खरविषाण आदि वाच्य नहीं होते, उसी प्रकार आत्माकी शुद्ध पर्यायका अभाव न होनेसे-सद्भाव होनेसे-उसके द्वारा आत्मा वाच्य होती है)। (९) तथा, जिसप्रकार रूप गुण होनेसे द्रव्यके आश्रित होता है, उसी प्रकार सुख आदि गुण होनेसे द्रव्यके आश्रित होते हैं। जो गुणोंका आश्रय है, वह आत्मा है। इस प्रकार आत्माके अस्तित्वको सिद्ध करनेवाले अनेक हेतुओंका सद्भाव पाया जाता है । अतएव अनुमानसे भी आत्माकी सिद्धि होती हैं। तथा, आप लोगोंने जो 'आगमोंका परस्पर विरोध' दिखलाया, वह भी ठीक नहीं। क्योंकि हम आप्तके द्वारा प्रणीत आगमको ही प्रमाण मानते हैं, परस्पर विरुद्ध अर्थके प्रतिपादन करनेवाले आगमको नहीं। आप्तकथित आगममें कष, छेद और ताप रूप उपाधियोंका निषेध किया गया है, इसलिये वह आगम प्रमाण है। (कष आदिका स्वरूप बत्तीसवें श्लोककी व्यख्यामे बताया गया है)। शंका-जिसके सम्पूर्ण
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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