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________________ १७४ श्रीमदराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य, यो. व्य. श्लोक १७ कुतः संभवः। किञ्च, इन्द्रियाणां स्वस्व विषयनियतत्वेन रूपरसयोः साहचर्यप्रतीतौ न साम य॑म । अस्ति च तथाविधफलादे रूपग्रहणानन्तरं तत्सहचरितरसानुस्मरणम, दन्तोदकसंप्लवान्यथानुपपत्तेः। तस्मादुभयोर्गवाक्षयोरन्तर्गतः प्रेक्षक इव द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोर्दर्शी कश्चिदेकोऽनुमीयते । तस्मात्करणान्येतानि यश्चैषां व्यापारयिता स आत्मा ॥ ___ तथा साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्टक्रियात्वात् , रथक्रियावत् । शरीरं प्रयत्नवदधिष्ठितम् , विशिष्ट क्रियाश्रयत्वात् , रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, सारथिवत्। तथात्रैव पक्षे, इच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वाद् भस्त्रावत् । वायुश्च प्राणापानादिः। यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, भस्त्राध्मापयितृवत् । तथात्रैव पक्षे, इच्छाधीननिमेपोन्मेषवदवयवयोगित्वाद्, दारुयन्त्रवत् । तथा शरीरस्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणं च प्रयत्नवत्कृतम् , वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणत्वाद्, गृहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत् । वृक्षादिगतेन वृद्धयादिना व्यभिचार इति चेत् , न । तेषामपि एकेन्द्रियजन्तुत्वेन सात्मकत्वात् । यश्चेषां कतो, स आत्मा, गृहपतिवत् । वृक्षादाना च 'सात्मकत्वमाचाराङ्गादेरवसेयम् । किंचिद्वक्ष्यते च ॥ ___तथा प्रेयं मनः, अभिमतविषयसम्बन्धीनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्, दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति । तथा आत्मचेतनक्षेत्रज्ञजीवपुद्गलादयः पर्याया न निर्विहोना चाहिये । तथा, 'मैंने देखा, मैंने छुआ, मैंने सूंघा, मैंने चाखा, मैंने सुना', इस प्रकार विविध इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान एक कर्ताके साथ संबद्ध नहीं हो सकता। तथा, प्रत्येक इन्द्रियका विषय अलग अलग है, इसलिये रूप और रसका एक साथ ज्ञान करने में वे समर्थ नहीं है; परन्तु हम देखते हैं कि आम वगैरह फलके देखते ही मुंहमें पानी आ जानेसे, साथ ही साथ, आमके रसका भी अनुभव होता है। अतएव दो खिड़कियोंमेंसे देखनेवाले प्रेक्षककी तरह, दो इन्द्रियों ( नेत्र और रसना) द्वारा रूप और रसको अनुभव करनेवाला एक आत्मा ही है। इसलिये ये इन्द्रियाँ करण है, और इन इन्द्रियोंका प्रेरक आत्मा है। (२) हित रूप साधनोंका ग्रहण और अहित रूप साधनोंका त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि यह क्रिया है। जितनी क्रिया होती है, वे सब यत्नपूर्वक होती हैं। जैसे रथकी चलनेकी क्रिया सारथिके प्रयत्नसे होती है, वैसे ही शरीरको नियत दिशामें लेजानेवाली चेष्टा आत्माके प्रयत्नसे होती है। यही आत्मा रथको चलानेवाले सारथिकी तरह कर्ता है । (३) जिस प्रकार वायुकी सहायतासे कोई पुरुष धोंकनीको फूंकता है, वैसे ही इच्छापूर्वक श्वासोच्छवास रूप वायुसे शरीर रूपी धोंकनीको फूंकनेवाला शरीरका अधिष्ठाता आत्मा है। (४) जिस प्रकार लकड़ीके बने मशीनके खिलौनेकी आखोंका खुलना और बंद होना किसी कर्ताके अधीन रहता है, उसी प्रकार शरीर रूपी यंत्रका कर्ता किसी आत्माको स्वीकार करना चाहिये । (५) जैसे घरका बनाना, फोड़ना और टूटे हुएकी मरम्मत करना आदि किसी कर्ताद्वारा किये जाते हैं, उसी प्रकार शरीरकी वृद्धि, हानि, घावका भर जाना आदि कार्य आत्माके स्वीकार करनेसे ही बन सकते हैं । यदि कहो कि वृक्ष आदिमें जो वृद्धि, हानि होती है, उसका कोई अधिष्ठाता नहीं देखा जाता, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि वृक्ष आदि एकेन्द्रिय जीव है, इसलिए उनमें भी आत्मा है । वृक्ष आदिमें आत्माकी सिद्धि आचारांग (१-१-५) से जाननी चाहिये । इसका वर्णन आगे भी किया जायगा ( देखिये श्लोक २९ की व्याख्या )। (६) तथा जिसप्रकार बालकके हाथकी गेंद अभिमत विषयके साथ होनेवाले संबंध की निमित्तभूत क्रियाका आश्रय होनेसे प्रेर्य (प्रेरित करनेके योग्य-फेंकने के योग्य ) होती है; अर्थात् जिस प्रकार दीवार पर १ आचाराङ्गसूत्रश्रुतस्कंधे १-१-५
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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