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अन्य. यो. व्य. श्लोक १७] स्याद्वादमञ्जरी
१७३ ___ यच्च अहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् तत्रेयं वासना । आत्मा तावदुर्पयोगलक्षणः । स च साकारानाकारोपयोगयोरन्यतरस्मिन्नियमेनोपयुक्त एव भवति । अहंप्रत्ययोऽपि चोपयोगविशेष एव । तस्य च कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यात् इन्द्रियानिन्द्रियालोकविषयादिनिमित्तसव्यपेक्षतया प्रवर्तमानस्य कादाचित्कत्वमुपपन्नमेव । यथा बीजं सत्यामप्यङ्कुरोपजनशक्तौ पृथिव्युदकादिसहकारिकारणकलापसमवहितमेवाङ्कुरं जनयति, नान्यथा। न चैतावता तस्याङ्कुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की, तस्याः कथंचिन्नित्यत्वात् । एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् ॥
यदप्युक्तम् तस्याव्यभिचारि लिङ्गं किमपि नोपलभ्यत इति तदप्यसारं । साध्याविनाभाविनोऽनेकस्य लिङ्गस्य तत्रोपलव्धेः। तथाहि । रूपाद्युपलब्धिः सकर्तृका, क्रियात्वात् , छिदिक्रियावत् । यश्चास्याः कर्ता स आस्मा । न चात्र चक्षुरादीनां कर्तृत्वम् । तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतंत्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाचेतनत्वात् , परप्रेर्यत्वात् , प्रयोक्तव्यापारनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् । यदि हि इन्द्रियाणामेव कर्तृत्वं स्यात् , तदा तेषु विनष्टेषु पूर्वानुभूतार्थस्मृतेः मया दृष्टम् स्पृष्टम् घातम् आस्वादितम् श्रुतम् इति प्रत्ययानामेककर्तृकत्वप्रतिपत्तेश्च है। जैसे अपने प्रिय सेवकमें अहंबुद्धि होती है, उसी प्रकार यहाँ अहं प्रत्ययका प्रयोग आत्माके उपकारक शरीरमें होता है।
(ग) 'अहं प्रत्यय'का जो कादाचित्कत्व ( अनित्यत्व ) है, उसके विषयमें यहाँ प्रतिपादन किया गया है। आत्माका लक्षण उपयोग है। वह आत्मा साकार और अनाकार उपयोगमेंसे किसी एक उपयोगमें नियमसे उपयुक्त ही रहती है । 'अहं प्रत्यय' भी एक प्रकारका उपयोग ही है । कर्मके क्षयोपशमके वैचित्र्यके कारण इन्द्रिय, मन, आलोक, विषय आदि निमित्तोंकी अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होनेवाले उस 'अहं प्रत्यय'रूप विशिष्ट उपयोगका कादाचित्क ( अनित्य ) होना ठीक ही है। जिस प्रकार बीजमें अंकुरके उत्पन्न करनेकी शक्तिके सदा विद्यमान रहते हुए भी पृथिवी, जल आदि सहकारी सामग्री मिलनेपर ही बीज अंकुरको उत्पन्न करता है, सहकारी सामग्रीके अभावमें वह अंकुरको उत्पत्ति नहीं कर सकता। बीजकी अंकुर उत्पन्न करनेकी क्रियाके कादाचित ( अनित्य ) होनेपर भी बीजकी अंकुर उत्पादन करनेकी शक्तिको कादाचित्क नहीं कह सकते, क्योंकि बीजकी वह अंकुर उत्पादन करनेकी शक्ति कथंचित् अनित्य होती है। इसी तरह आत्माके सदा विद्यमान रहनेपर भी कर्मोंके क्षय और उपशमकी विचित्रतासे इन्द्रिय, मन आदिके सहकार मिलनेपर ही 'अहं प्रत्यय' होता है, जो कादाचित्क ( अनित्य ) होता है।
(घ) आत्माको सिद्ध करनेवाले 'व्यभिचारी हेतुका अभाव', जो कहा है, वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिनका आत्मरूप साध्यके साथ अविनाभावी संबंध विद्यमान है, ऐसे अनेक हेतु हैं : (१) रूप आदिको जाननेकी क्रियाका कर्ता विद्यमान है, क्योंकि रूप आदिको जानना क्रियारूप है, जैसे छेदन क्रिया। जैसे छेदन रूप क्रियाका कोई काटनेवाला देखा जाता है, उसी तरह रूप आदि रूप क्रियाका कोई कर्ता होना चाहिये। इन रूप आदिको जाननेकी जो क्रिया है उसका कर्ता आत्मा ही है। यदि कहो कि चक्षु आदि इन्द्रियां रूप आदिको जाननेकी क्रियाके विषयमें कर्ता हैं, इसलिये आत्माके माननेकी आवश्यकता नहीं, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार कुठार आदि करण होनेसे किसी दूसरे कर्ताके आधीन रहते हैं, उसी तरह इन्द्रियाँ करण हैं, इसलिये वे भी परतंत्र हैं। तथा, इन्द्रियाँ पौद्गलिक होनेसे अचेतन होनेके कारण, दूसरेकी प्रेरणासे कार्य करनेके कारण और प्रयोक्ताको क्रियाकी अपेक्षाके अभावमें उनकी प्रवृत्ति न होनेके कारण, वे करणरूप हैं। यदि स्वयं इन्द्रियाँ ही रूप आदिको जाननेकी क्रियाको कर्ता हों, तो इन्द्रियोंके नष्ट होनेपर, इन्द्रियोंसे पूर्वकालमें अनुभूत पदार्थों का स्मरण नहीं १. बाह्याभ्यन्तरहेतुदयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणामः उपयोगः। राजवार्तिके प. ८२।