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________________ १७२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १७ तत् शून्यम् वा अशून्यम् वा ? | शून्यं चेत्, सर्वोपाख्याविरहितत्वात् खपुष्पेणेव नानेन किञ्चित्साध्यते निषिध्यते वा । ततश्च निष्प्रतिपक्षा प्रमाणादितत्त्वचतुष्टयीव्यवस्था । अशून्यं चेत्, प्रलीनस्तपस्वी शून्यवादः । भवद्वचनेनैव सर्वशून्यताया व्यभिचारात् । तत्रापि निष्कण्टकैव सा भगवती । तथापि प्रामाणिक समयपरिपालनार्थं किञ्चित् तत्साधनं दूष्यते ॥ तत्र यत्तावदुक्तम् प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिद्धिः, इन्द्रियगोचरातिक्रान्तत्वादिति, तत्सिद्धसाधनम् । यत्पुनः अहंप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वमनैकान्तिकमित्युक्तम् तदसिद्धम् । अहं सुखी अहं दुःखी इति अन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः । तथा चाहु: । "सुखादि चेत्यमानं हि स्वतन्त्रं नानुभूयते मतुबर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः ॥ इदं सुखमिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत् । अहं सुखीति तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका ॥" " यत्पुनः अहं गौरः श्यामः इत्यादिबहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणाय शरीरे प्रयुज्यते । यथा प्रियभृत्येऽहमितिव्यपदेशः ॥ २ स्वयं शून्यरूप है, या अशून्यरूप ? यदि यह वाक्य शून्यरूप है, तो समस्त इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य न होनेसे खरविषाणको तरह इस वचनके द्वारा न किसीकी सिद्धि हो सकती है, और न किसीका निषेध किया जा सकता है । अतएव प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाता इस प्रमाण चतुष्टयका निर्णय निर्विरोध सिद्ध हो जाता है । यदि कहो कि उक्त वाक्य अशून्यरूप हैं, तो तपस्वी शून्यवाद ही नष्ट हो जाता है । क्योंकि शून्यवादियोंके वचनोंको अशून्य माननेसे सर्वशून्यता नहीं बन सकती । अतएव प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाता ये चारों निर्बाध सिद्ध हो जाते हैं । (क) — आप लोगोंने जो कहा कि 'प्रमाता इन्द्रियोंका विषय नहीं है, इसलिए प्रमाता प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं होता' सो हम भी आत्माको प्रत्यक्षका विषय नहीं मानते, अतएव उक्त कथन हमारे लिये सिद्धसाधन है । (ख) 'अहं प्रत्यय' से मानस प्रत्यक्षद्वारा आत्माका अस्तित्व स्वीकार करनेमें अनैकांतिक दोष' नहीं आता, क्योंकि 'मैं सुखी हूँ,' 'मैं दुखी हूँ' इस प्रकारका अंतरंग ज्ञान आत्मा ही के आधारसे होता है । कहा भी है " जिसका अनुभव किया जाता है, ऐसे सुख आदिका अनुभव स्वतंत्ररूपसे अर्थात् आत्मा के बिना नहीं किया जाता । 'सुखी' शब्द मत्वर्थीय इत् प्रत्यय लगनेसे बना है। 'सुखमस्यास्मिन्वास्तीति सुखी' इस निरुक्तिमें जो 'अस्य' पद है वह सुखके आश्रयभूत आत्माका ज्ञान कराता है । अतः मतुप् प्रत्ययसे सुखके आश्रयभूत आत्मपदार्थका सूचन होनेसे, 'सुखी' शब्दसे आत्माका ग्रहण होता है । जिस प्रकार यह घट है' ऐसा कहनेसे घट पदार्थ दिखाई देता है, उसी प्रकार 'यह सुख है' ऐसा कहने पर सुख दिखाई नहीं देता । अत: 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान आत्माको भी प्रकाशित करता है ।" तथा 'मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ' इत्यादि रूप जो बहिर्मुख ज्ञान होता है, वह इसी आत्माका उपकार ( सुख-दुख आदिका अनुभव करनेमें सहकारी ) होनेसे, लक्षणके द्वारा, शरीरके विषयमें प्रयुक्त किया जाता १. न्यायमंजर्याम् । २. मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया । - काव्यप्रकाशे मम्मटः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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