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________________ अन्य.यो. व्य. श्लोक १७] स्याद्वादमञ्जरी १७१ इत्यावर्त्तनेनानवस्था । अथ अचिद्रूपः, किमज्ञातः ज्ञातो वा तज्ज्ञापकः स्यात् । प्राचीनविकल्पे, चैत्रस्येव मैत्रस्यापि तज्ज्ञापकोऽसौ स्यात् । तदुत्तरे तु, निराकारेण साकारेण वा ज्ञानेन, तस्यापि ज्ञानं स्यात् । इत्याद्यावृत्तावनवस्थेवेति ।। इत्थं प्रमाणाभावे तत्फलरूपा प्रमितिः कुतस्तनी। इति सर्वशून्यतैव परं तत्त्वमिति । यथा च पठन्ति "यथा यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा यदेतद् स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्"१ इति पूर्वपक्षः। विस्तरतस्तु प्रमाणखण्डनं तत्त्वोपप्लवसिंहादवलोकनीयम् ।। अत्र प्रतिविधीयते । ननु यदिदं शून्यवादव्यवस्थापनाय देवानांप्रियेण वचनमुपन्यस्तम् पदार्थोंका ज्ञाता होता है क्या? इस प्रकार फिर फिरसे प्रश्न उपस्थित होनेपर अनवस्था दोष उपस्थित होता है। यदि वह पदार्थका आकार चिद्रूप न हो तो क्या वह ज्ञात आकार पदार्थका ज्ञान कराता है या अज्ञात आकार? यदि अज्ञात पदार्थका आकार पदार्थका ज्ञान कराता है तो वह अज्ञात आकार, चैत्र और मैत्र द्वारा अज्ञात होनेसे, जिस प्रकार चैत्रको पदार्थका ज्ञान कराता है, उसी प्रकार मैत्रको भी पदार्थका ज्ञान करायेगा। यदि पदार्थका आकार ज्ञात होनेपर पदार्थका ज्ञान कराता है तो क्या उस आकारका ज्ञान आकारशून्य ज्ञानसे होता है या आकारसहित ज्ञानसे? इस प्रकार फिर फिरसे प्रश्न उपस्थित होनेपर अनवस्था दोष ही उपस्थित होता है । (घ) प्रमाणकी सिद्धि न होनेपर प्रमाणका फल प्रमिति भी सिद्ध नहीं होती अतएव सर्वथा शून्यता ही वास्तविक तत्व हैं। कहा भी है "जैसे जैसे तत्वोंका विचार करते हैं, वैसे वैसे तत्त्व विशीर्ण होते हैं। वास्तवमें पदार्थोंका स्वरूप ही इस तरहका है, इसमें हमारा दोष नहीं।" प्रमाणका विस्तृत खंडन तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रंथमें देखना चाहिये। उत्तरपक्ष-जैन-देवानांप्रिय बौद्ध लोगोंने शन्यवादकी स्थापना करनेके लिये जो वाक्य कहा है, वह १ बुद्धयां विवच्यमानानां स्वभावो नावधार्यते । अतो निरभिलप्यास्ते निस्स्वभावाश्च कीर्तिताः इदं वस्तु बलायतं यद्वदातं विपश्चितः । यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा ॥ लंकावतारसूत्रे २ यह ग्रंथ पाटणके एक जैन भंडारसे मिला है। इसके कर्ता जयराशि भट्ट हैं। पं. बेचरदास जीवराज दोशीका अनुमान है, कि ये जयराशि भट्ट ही तत्त्वोपप्लववादी अथवा तत्त्वोपप्लवसिंह नामसे कहे जाते थे। तत्त्वोपप्लवके अंतिम दो श्लोक 'ये याता न हि गोचरं सुरगुरोर्बुद्धेविकल्पा दृढाः प्राप्यन्ते ननु तेऽपि यत्र विमले पाषण्डदर्पच्छिदि । भट्टश्रीजयराशिदेवगुरुभिः सृष्टो महार्थोदयस्वत्त्वोपप्लवसिंह एव इति यः ख्याति परां यास्यति ।। पाखण्डखण्डनाभिज्ञा ज्ञानोदधिविवधिताः। जयराशेजयन्तीह विकल्पा वादिजिष्णुवः ।। पहले श्लोकसे स्पष्ट है कि यही ग्रंथ तत्त्वोपप्लवसिंहके नामसे प्रसिद्ध था।' देखिये 'पुरातत्त्व' ५-४, पृ. २६१ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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