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________________ १६८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १७ अथ तत्त्वव्यवस्थापकप्रमाणादिचतुष्टयव्यवहारापलापिनः शून्यवादिनः सौगतजातीयांस्तत्कक्षीकृतपक्षसाधकस्य प्रमाणस्याङ्गीकारानङ्गीकारलक्षणपक्षद्वयेऽपि तदभिमतार्थासिद्धिप्रदर्शनपूर्वकमुपहसन्नाह विना प्रमाणं परवन्न शून्यः स्वपक्षसिद्धेः पदमश्नुवीत । कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥१७॥ शून्यः शून्यवादी प्रमाणं प्रत्यक्षादिकं विना अन्तरेण स्वपक्षसिद्धेः स्वाभ्युपगतशून्यवादनिष्पत्तः पदं प्रतिष्ठां नाश्नुवीत न प्राप्नुयात । किंवत ? परवत इतरप्रामाणिकवत् । वैधयेणायं दृष्टान्तः। यथा इतरे प्रामाणिकाः प्रमाणन साधकतमेन स्वपक्षसिद्धिमश्नुवते एवं नायम् । अस्य मते प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारस्यापारमार्थिकत्वात् , “सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्धयारूढेन धर्मधर्मिभावेन न बहिःसदसत्त्वमपेक्षते" इत्यादिवचनात् । अप्रमाणकश्च शून्यवादाभ्युपगमः कथमिव प्रेक्षावतामुपादेयो भविष्यति, प्रेक्षावत्त्वव्याह तिप्रसंगात् ।। । अथ चेत् स्वपक्षसंसिद्धये किमपि प्रमाणमयमङ्गीकुरुते, तत्रायमुपालम्भः कुप्येदित्यादि । प्रमाणं प्रत्यक्षाद्यन्यतमत् स्पृशते आश्रयमाणाय, प्रकरणादस्मै शून्यवादिने, कृतान्तस्तत्सिद्धान्तः कुप्येत्कोपं कुर्यात् , सिद्धान्तवाधः स्यादित्यर्थः। यथा किल सेवकस्य विरुद्धवृत्त्या कुपितो नृपतिः सर्वस्वमपहरति, एवं तत्सिद्धान्तोऽपि शून्यवादविरुद्धं प्रमाणव्यवहारमङ्गीकुर्वाणस्य तस्य सर्वस्वभूतं सम्यग्वादित्वमपहरति ।। इसके बाद तत्त्वोंके व्यवस्थापक प्रमाण, प्रमिति, प्रमेय और प्रमाताके व्यवहारका लोप करनेवाले शून्यवादी बौद्धोंके पक्षका खंडन करते हुए उसका उपहास करते हैं इलोकार्थ-दूसरे वादी प्रमाणोंको मानते हैं, इसलिये उनके मतकी सिद्धि हो सकती है। परन्तु शून्यवादी प्रमाणके बिना अपने पक्षकी सिद्धि नहीं कर सकते। यदि शून्यवादी किसी प्रमाणको मानें, तो शून्यतारूपी यमके कुपित होनेसे शून्यवादको सिद्धि नहीं हो सकती। हे भगवन् ! आपके मतसे ईर्ष्या रखनेवाले लोगोंने जो कुछ कुमतिज्ञान रूपी नेत्रोंसे जाना है, वह मिथ्या होनेके कारण उपहासके योग्य है ॥ व्याख्यार्थ-शून्यवादी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंको बिना माने ही स्वमान्य शून्यवादके सिद्धान्तको सिद्ध करना चाहते हैं, जो सिद्ध नहीं हो सकता। कैसे? प्रमाणों को स्वीकार करनेवाले अन्य दार्शनिकोंके समान । यह वैधर्म्य दृष्टान्त है । जैसे अन्य प्रामाणिक साधकतम ( साध्य की सिद्धि करनेवाले ) प्रमाण के द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि कर सकते हैं, उस प्रकार शून्यवादी ( साधकतम ) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों को माने बिना अपने पक्षकी सिद्धि नहीं कर सकते । क्योंकि इनके मतमें प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाणका व्यवहार अपारमार्थिक-अवास्तविक माना गया है। कहा भी है, "बुद्धि पर आरूढ़ हुए धर्म-धर्मि संबंधके कारण समस्त अनुमान-अनुमेय व्यवहार वाह्य पदार्थके कारण सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा नहीं करता" अर्थात् बाह्य पदार्थ का सद्भाव हो या असद्भाव, वह समस्त अनुमान-अनुमेय व्यवहार काल्पनिक धर्म-धर्मिके संबंधसे रहता है। शून्यवाद की सिद्धि करनेवाले प्रमाणों का अभाव होनेसे शून्यवाद की मान्यता बुद्धिमानों द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकती, क्योंकि इससे उनकी बुद्धिमत्ताके आहत होनेका प्रसंग उपस्थित होता है। यदि शून्यवादी अपने सिद्धांतको सिद्ध करनेके लिए कोई प्रमाण दें, तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणका आश्रय लेनेके कारण शून्यवादियोंका सिद्धान्त बाधित होता है । जिस प्रकार कोई राजा अपने सेवकके अवांछनीय आचरणसे कुपित होकर सेवकका सर्वस्व हरण कर लेता है, वैसे ही शून्यवादका सिद्धान्त शून्यवादके विरुद्ध प्रमाण आदि व्यवहारको स्वीकार करनेवाले शून्यवादीका सर्वस्व हरण करता है। अतएव प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे शून्यवादको सिद्धि नहीं हो सकती।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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