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________________ १६९ अन्ययो. व्य. श्लोक १७] स्याद्वादमञ्जरी किञ्च, स्वागमोपदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररूप्यते, इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपक्षसिद्धिः, प्रमाणाङ्गीकरणात् । किञ्च, प्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणानङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम्। ततश्चास्य मूकतैव युक्ता, न पुनः शून्यवादोपन्यासाय तुण्डताण्डवाडम्बरं । शून्यवादस्यापि प्रमेयत्वात् । अत्र च स्पृशिधातुं कृतान्तशब्दं च प्रयुञ्जानस्य सूरेरयमभिप्रायः । यद्यसौ शून्यवादी दूरे प्रमाणस्य सर्वथाङ्गीकारो यावत् प्रमाणस्पर्शमात्रमपि विधत्ते, तदा तस्मै कृतान्तो यमराजः कुप्येत् । तत्कोपो हि मरणफलः । ततश्च स्वसिद्धान्तविरुद्धमसौ प्रमाणयन् निग्रहस्थानापन्नत्वाद् मृत एवेति ॥ ___ एवं सति अहो इत्युपहासप्रशंसायाम् । तुभ्यमसूयन्ति गुणेषु दोषानाविष्कुर्वन्तीत्येवं शीलास्त्वदसूययिनस्तंत्रान्तरीयास्तैर्दष्टं मत्यज्ञानचक्षषा निरीक्षितमहो। सुदप्टं साधु दृष्टम । विपरीतलक्षणयोपहासान्न सम्यग्दृष्टमित्यर्थः । अत्रासूयधातोस्ताच्छीलिकणक्प्राप्तावपि बाहुलकाण्णिन् । असूयास्त्येषामित्यसूयिनस्त्वय्यसूयिनः त्वदसूयिन इति मत्वर्थीयान्तं वा । त्वदसूयुदृष्टमिति पाठेऽपि न किञ्चिदचारु। असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाद्यैायतात्पर्यपरिशुद्धथादौ मत्स रिणि प्रयोगादिति ॥ इह शून्यवादिनामयमभिसंधिः। प्रमाता प्रमेयं प्रमाणं प्रमितिरिति तत्त्वचतुष्टयं परपरिकल्पितमवस्त्वेव, विचारासहत्वात , तुरङ्गशृङ्गवत् । तत्र प्रमाता तावदात्मा, तस्य च प्रमाणग्राह्यत्वाभावादभावः। तथाहि । न प्रत्यक्षेण तत्सिद्धिरिन्द्रियगोचरातिक्रान्तत्वात् । यत्तु अहङ्कारप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वसाधनम् तदप्यनैकान्तिकम् । तस्याहं गौरः श्यामो तथा, शून्यवादी लोग अपने आगमके अनुकूल ही शून्यवादका प्ररूपण करते हैं। अतएब आगम माननेसे शून्यवादियोंके सिद्धांतकी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि आगम प्रमाण माननेसे सर्वथा शून्यपना नहीं वनता । तथा, प्रमाण प्रमेयके बिना नहीं हो सकता, अतएव कोई प्रमाण न माननेसे प्रमेय भी नहीं बन सकता, अतएव शून्यवादियोंको शून्यवादको स्थापना करनेका आडम्बर न रचते हुए मौन रहना ही ठीक है। क्योंकि शून्यवाद भी प्रमेयमें ही गर्भित होता है, तथा, शून्यवादियोंके मतमें प्रमेय कोई वस्तु नहीं है। यहाँ पर स्तुतिकारका स्पृश् धातु और कृतान्त शब्दके प्रयोग करनेसे आचार्यका यही अभिप्राय है कि शून्यवादी लोग शून्यवादकी सिद्धि करनेके लिये प्रमाणका स्पर्श भी करें, तो कृतान्त (यमराज तथा सिद्धान्त) कुपित हो जाता है। अतएव जिस प्रकार यमराजके कुपित होनेसे जीवकी मृत्यु होती है, उसी प्रकार प्रमाणोंका आश्रय लेनेसे शून्यवादी निग्रहस्थानमें पड़, अपने सिद्धान्तकी स्थापना नहीं कर सकता, इसलिये वह मृत ही है। 'अहो' शब्द उपहास और प्रशंसा अर्थमें प्रयुक्त होता है। अतएव हे भगवन्, तुम्हारे गुणोंमें ईर्ष्या रखनेवाले अन्यमतावलम्बियोंने जो कुमतिज्ञान रूपी नेत्रोंसे जाना है; वह विपरीत लक्षण होनेके कारण उपहासके योग्य है। यहाँ असूय धातुमें 'णक्' प्रत्यय होनेसे 'असूयक' शब्द बनना चाहिये था, परन्तु बहुलतासे असूय् धातुमें 'णिन्' प्रत्यय होनेपर 'असूयि' शब्द बना है । अथवा, जिनके 'असूया' हो वे असूयी है। यहाँ असूया शब्दसे मत्वर्थमें 'इन्' प्रत्यय करनेसे 'असूयी' शब्द बनता है। अथवा, 'असूयु' शब्द भी अशुद्ध नहीं है। उदयन आदि आचार्योंने न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि आदि ग्रन्थोंमें 'असूयु' शब्दका प्रयोग मत्सरोके अर्थमें किया है। न्यवादी-प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति ये चारों तत्त्वचतुष्टय अवस्तु है, क्योंकि इनका विचार करनेपर खरविषाणकी तरह प्रमाण आदिको व्यवस्था नहीं बनती। (क) प्रमाता आत्मा है। आत्मा किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होती, अतएव आत्माका अभाव है। तथाहि-आत्मा इन्द्रियोंका विषय नहीं है, इसलिये इन्द्रिय-प्रत्यक्षसे आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती। यदि कहो कि 'अहं प्रत्यय' से मानस प्रत्यक्षद्वारा आत्माकी सिद्धि होती है, तो यह अनेकांतिक है। क्योंकि 'मैं गोरा है'. २२
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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