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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६] स्याद्वादमञ्जरी १६७ वेदन ज्ञानमें क्रियाका अभाव होनेसे कार्य-कारण भाव नहीं बन सकता। क्योंकि स्वसंवेदनसे स्वसंवेदनको उत्पत्ति नहीं होती। ( ट ) कपालके प्रथम क्षणसे घटका अंतिम क्षण उत्पन्न होता है, परन्तु कपालके प्रथम क्षणसे घटके अंतिम क्षणका ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार समानजातीय ज्ञानसे समनन्तर ज्ञानके उत्पन्न होनेपर समानजातोयसे समनन्तर ज्ञानका ज्ञान नहीं होता। (ठ) अतएव जिस समय ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मका क्षयोपशम हो जानेसे आत्मामें क्षय और उपशम रूप योग्यता होती है, उसी समय प्रतिनियत पदार्थोंका ज्ञान स्वीकार करना चाहिए। योगाचार (बौद्ध)-(४) ज्ञान मात्र ही परमार्थसत है. क्योंकि ज्ञानका कारण कोई बाह्य पदार्थ नहीं है । बाह्यार्थवादी परमाणुओंके समूहको बाह्य पदार्थ कहते हैं, अथवा स्थूल अवयवीरूप पिंडको? प्रत्यक्ष अथवा अनुमानसे परमाणुरूप वाह्य पदार्थोंकी सिद्धि नहीं होती, अतएव बाह्य पदार्थ परमाणुरूप नहीं हो सकते । तथा बाह्य पदार्थोंको परमाणुरूप सिद्धि न होनेसे उन्हें स्थूल अवयवी भी नहीं कह सकते। क्योंकि परमाणुओंके समूहको अवयवी कहते हैं। अतएव जो नील, पीत आदि पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, वे सब ज्ञानरूप ही है। जिस प्रकार बाह्य आलम्बनके बिना आकाशमें केशका ज्ञान होता है, उसी तरह अनादि कालकी अविद्याकी वासनासे बाह्य पदार्थोंके अवलम्बनके बिना ही घट, पट आदि पदार्थोंका ज्ञान होता है। वास्तवमें स्वयं ज्ञान ही ग्राह्य और ग्राहकरूप प्रतिभासित होता है। जैन ( क) यदि बाह्य पदार्थोंको ज्ञानका विषय नहीं माना जाय, तो ज्ञानको निविषय माननेसे ज्ञानको अप्रमाण मानना पड़ेगा। वास्तविक बाह्य पदार्थोंके बिना हमें ज्ञान मात्रसे ही पदार्थोंका प्रतिभास नहीं हो सकता। ज्ञानसे बाह्य पदार्थोंका ज्ञान होना अनुभवसे सिद्ध है। (ख) परमाणुरूप बाह्य पदार्थको प्रत्यक्ष और अनुमानसे सिद्धि होती है । क्योंकि हम परमाणुओंके कार्य घट आदिके प्रत्यक्षसे परमाणुओंका कथंचित् प्रत्यक्ष करते हैं। इसलिये परमाणुओंकी अनुमानसे भी सिद्धि होती है; क्योंकि परमाणुओंके अस्तित्वके बिना घट आदि स्थूल अवयवीकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अवयव (परमाणु ) और अवयवीका हमलोग कथंचित् भेदाभेद स्वीकार करते हैं, अतएव बाह्य पदार्थों को परमाणु और स्थूल अवयवी दोनों रूप मानना चाहिये। (ग) वासनावैचित्र्यसे भी पदार्थोंका नाना रूप प्रतिभासित मानना ठीक नहीं। क्योंकि बाह्य पदार्थोके अनुभव होनेपर ही वासना उत्पन्न होती है। तथा ज्ञान और वासनाको अलग-अलग माननेसे ज्ञानाद्वैत नहीं बन सकता। योगाचार-'जो जिसके साथ उपलब्ध नहीं होता है, वह उससे अभिन्न है। जैसे आकाश-चन्द्रमा जल-चन्द्रमाके साथ उपलब्ध होता है, इसलिये दोनों परस्पर अभिन्न हैं। इसी तरह ज्ञान और पदार्थ एक साथ उपलब्ध होते हैं । अतएव ज्ञान और पदार्थ एक दूसरेसे अभिन्न हैं'-इस अनुमानसे ज्ञान और पदार्थकी अभिन्नता सिद्ध होती है । जैन-यह अनुमान संदिग्धानेकांतिक हेत्वाभास है। क्योंकि ज्ञानसे जाने हुए नील और नीलज्ञानमें सहोपलंभ नियम होनेपर भी उनमें अभिन्नता नहीं पायी जाती। तथा सहोपलंभ नियम पक्षमें नहीं रहनेके कारण असिद्ध भी है। क्योंकि ज्ञान और पदार्थमें अभेद सिद्ध नहीं होता । तथा, बाह्य पदार्थोंका अभाव माननेसे, यह वस्तु इसी स्थानपर है, दूसरे स्थानपर नहीं, यह नियम नहीं बन सकता । अतएव नील, पोत आदि ज्ञानसे भिन्न हैं, क्योंकि ज्ञान और ज्ञेय परस्पर विरोधी हैं। ज्ञान अन्तरंग है, ज्ञेय बाह्य; ज्ञान ज्ञेयके पश्चात् उत्पन्न होता है, ज्ञेय ज्ञानके पूर्व; ज्ञान आत्मामें उत्पन्न होता है, ज्ञान अपने भिन्न कारणोंसे; तथा ज्ञान प्रकाशक है, और ज्ञेय जड़ है । अतएव विज्ञानाद्वैतको न मान कर ज्ञान और बाह्य पदार्थोंका परस्पर भेद मानना चाहिये ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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