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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ भावात् । तथा च यदेकेनाह मिति प्रतीयते तदेवापरेण त्वमिति प्रतीयते । नीलाद्याकारस्तु व्यवस्थितः, सर्वैरप्येकरूपतया ग्रहणात् । भक्षितहत्पूरादिभिस्तु' यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते, तथापि तेन न व्यभिचारः तस्य भ्रान्तत्वात् । स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिभास इति चेत्, ननु किं परस्यापि संवेदनमस्ति । कथमन्यथा स्वशब्दस्य प्रयोगः। प्रतियोगीशव्दो ह्ययं परमपेक्षमाण एव प्रवर्तते । स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् , हन्त प्रत्यक्षेण प्रतीतो भेदः कथं न वास्तवः॥
भ्रान्त प्रत्यक्षमिति चेत्, ननु कुत एतत् । अनुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्धेरिति चेत् , किं तदनुमानमिति पृच्छामः । यद्येन सह नियमेनोपलभ्यते तत् ततो न भिद्यते, यथा सञ्चन्द्रादसञ्चन्द्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थ इति व्यापकानुपलब्धिः । प्रतिषेध्यस्य ज्ञानार्थयोर्भेदस्य व्यापकः सहोपलम्भानियमस्तस्यानुपलब्धिः। भिन्नयोलपीतयोर्युगपदुपलम्भनियमाभावात् । इत्यनुमानेन तयोरभेदसिद्धिरिति चेत् ॥
न। संदिग्धानैकान्तिकत्वेनास्यानुमानाभासत्वात् । ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनम् । तत्परदोनों पदार्थ ज्ञानाकार होते हैं। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार नील आकार निश्चित है, वैसे 'अहम्' आकार निश्चित नहीं है। कारण कि जो मेरे लिये 'अहं' है वह दूसरेके लिये 'त्वं' है। परन्तु नील आकार व्यवस्थित है, क्योंकि वह सब लोगोंके अनुभवमें एकरूपसे ही आता है। यदि कहो कि पित्त उत्पन्न करनेवाले धतूरेको खा लेनेसे नील पदार्थ भी पीतरूप प्रतिभासित होता है, इसलिये नील आकार सब लोगोंके अनुभवमें एकसा नहीं आता । यह भी ठीक नहीं। क्योंकि नीलका पीतरूप प्रतिभासित होना भ्रान्त है । रोग रहित मनुष्योंको नील सदा नील रूप ही प्रतिभासित होता है । स्वयंको अपने आपका ज्ञान होनेसे 'अहं' का प्रतिभास होता है, यह आपका कथन तभी सत्य माना जा सकता है, जब आप अपने अतिरिक्त दूसरेका भी संवेदन मानते हों । 'स्व' शब्द प्रतियोगी शब्द है । अतएव स्व शब्दसे पर शब्दका भी ज्ञान होता है। यदि कहो कि स्व शब्दमें पर स्वरूप भेदका ज्ञान होता है, वास्तवमें स्व और परमें कोई भेद नहीं है, तो खेद है कि आप लोग प्रत्यक्षसे दिखाई देनेवाले स्व और पर, तथा अंतर और बाह्यके भेदको भी वास्तविक नहीं मानना चाहते ।
वौद्ध-स्व और परके भेदको बतानेवाला प्रत्यक्ष भ्रान्त है। क्योंकि अनुमानसे ज्ञान और पदार्थका अभेद सिद्ध होता है। 'जो जिसके साथ नियमसे उपलब्ध होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे असत् या भ्रान्त चन्द्रमा यथार्थ चन्द्रमा के साथ उपलब्ध होता है, अतएव भ्रान्त चन्द्रमा यथार्थ चन्द्रमासे भिन्न नहीं है । इसी प्रकार ज्ञान और पदार्थ नियमसे एक साथ पाये जाते हैं। अतएव पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं है। ( व्यापकका अभाव होने पर व्याप्यका अभाव होना व्यापकानुपलब्धि है। यहाँ व्याप्य-शिशिपाका अभाव है, क्योंकि यहां शिशिपाव्यापक वृक्ष की अनुपलब्धि है। वृक्ष व्यापक है और वृक्ष होनेसे शिशिपा व्याप्य है। अतः वृक्षमात्रका अभाव शिशिपा वृक्षके अभाव की सिद्धि करता है । प्रस्तुत प्रसंगमें अभेदव्यवस्थापक सहोपलंभ नियम का अभाव व्यापक है तथा अर्थ और ज्ञानमें होनेवाला भेद व्याप्य । अर्थात् जहाँ सहोपलंभ नियम का अभाव होता है, वहां अभेद का अभाव-भेदका सद्भाव होता है । ) जिस प्रकार परस्पर भिन्न नील और पीत पदार्थों का एक साथ ज्ञान होनेके नियम का अभाव होता है, उसी प्रकार ज्ञानके साथ अर्थ की उपलब्धि नियमसे होती है, अतएव सहोपलंभ रूप नियमके अभावरूप व्यापक की उपलब्धि न होनेसे ज्ञानके और अर्थक अभेदके अभावरूप व्याप्य की उपलब्धि नहीं होती-ज्ञान और अर्थमें भेद की सिद्धि नहीं होती। इस अनुमानसे ज्ञान और अर्थ का अभेद सिद्ध होता है ।
जैन-बौद्धों का यह कथन ठीक नहीं है। (क) बौद्धोंके द्वारा उपस्थित किये गये अनुमानमें दिया
१. हृत्पूरः पित्तरोगकरः फलविशेपस्तद्भक्षणेन पित्तपीतिम्ना सर्वे पदार्थाः पीता इव भासन्ते ।