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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६] स्याद्वादमञ्जरी संवेदनतामात्रेणैव नीलं गृह्णाति, स्वसंवेदनतामात्रेणैव च नीलबुद्धिम् । तदेवमनयोर्युगपद् ग्रहणात्सहोपलम्भनियमोऽस्ति अभेदश्च नास्ति । इति सहोपलम्भनियमरूपस्य हेतोर्विपक्षाद् व्यावृत्तेः संदिग्धत्वात् संदिग्धानकान्तिकत्वम् । असिद्धश्च सहोपलम्भनियमः, नीलमेतत् इति बहिर्मुखतयाऽर्थेनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य नीलानुभवस्याननुभवात् , इति कथं प्रत्यक्षस्यानुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्धया भ्रान्तत्वम् । अपि च, प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाबाधितविषयत्वादनुमानस्यात्मलाभः, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वम् , इत्यन्योन्याश्रयदोषोऽपि दुर्निवारः। अर्थाभावे च नियतदेशाधिकरणा प्रतीतिः कुतः। न हि तत्र विवक्षितदेशेऽयमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः॥ वासनानियमात्तदारोपनियम इति चेत् । न । तस्या अपि तद्देशनियमकारणत्वाभावात् । सति ह्यर्थसद्भावे यद्देशोऽर्थस्तद्देशोऽनुभवः तद्देशा च तत्पूर्विका वासना । बाह्यार्थाभावे तु तस्याः किंकृतो देशनियमः॥ गया सहोपलंभरूप हेतु संदिग्धानेकांतिक होनेसे अनुमानाभास है। ( जिस हेतु की विपक्षसे व्यवृत्ति संदिग्ध होती है, उस हेतु को संदिग्धानकांतिक हेत्वाभास कहा जाता है ) । ज्ञान परमार्थतः स्व और पर को जाननेवाला होता है। परसंवेदन स्वभावके कारण ही ज्ञान नील पदार्थ को जानता है, तथा स्वसंवेदन स्वभावके कारण नीलके ज्ञान को ग्रहण करता है । इस प्रकार नील पदार्थ और नील पदार्थ का ज्ञान, इन दोनों को एक साथ ग्रहण करनेसे सहोपलंभ नियम का सद्भाव है । तथा नील पदार्थ और नील पदार्थ का ज्ञान; इन दोनोंमें अभेद नहीं है । इस प्रकार सहोपलंभ नियम रूप हेतु की विपक्षसे व्यावृत्ति संदिग्ध होनेके कारण उस हेतु का संदिग्धानकांतिक हेत्वाभासत्व सिद्ध हो जाता है । ( ख ) ज्ञान और अर्थ की एक साथ उपलब्धि होने का नियम असिद्ध है-उसकी सिद्धि नहीं होती; क्योंकि 'यह नील है,' इस प्रकार बहिर्मुख रूपसे जब पदार्थ का ज्ञान होता है, उसी समय अंतरंग नील ज्ञान का अनुभव नहीं होता । इस प्रकार नील पदार्थ का ज्ञान तथा अंतरंग नील ज्ञान का अनुभव एक साथ न होनेसे, सहोपलंभ नियमके स्वरूप की सिद्धि नहीं होती। इससे सहोपलंभ नियमहेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास ठहरता है और अनुमान नहीं बनता । ऐसी हालतमें असिद्ध अनुमानद्वारा सिद्ध किये जानेवाले ज्ञान और अर्थक अभेद द्वारा प्रत्यक्ष का भ्रान्तत्व कैसे सिद्ध हो सकता है ? (ग ) तथा, यदि प्रत्यक्षका भ्रान्तपना सिद्ध हो, तो अनुमानका विषय अबाधित सिद्ध होनेसे अनुमान की उत्पत्ति हो, तथा अनुमान की उत्पत्ति होने पर प्रत्यक्षका भ्रान्तपना सिद्ध हो-इस प्रकार अनुमान और प्रत्यक्षके परस्पर अन्योन्याश्रित होनेसे अन्योन्याश्रय दोष दुनिवार हो जाता है । इसलिये प्रत्यक्ष अथवा अनुमानसे भी ज्ञान और पदार्थमें अभेद सिद्ध नहीं होता। तथा, यथार्थ का अभाव होने पर पदार्थोके निश्चित स्थानकी प्रतीति नहीं होनी चाहिए । इसलिये विवक्षित स्थानमें ही अमुक पदार्थ का आरोप करना चाहिये, अन्यत्र नहीं, इस नियम का कारण नहीं बन सकता। विज्ञानवादी बौद्ध-हम लोग वासनाद्वारा प्रतिनियत स्थानमें रहनेवाले पदार्थोंका ज्ञान करते हैं। (घटके प्रतिनियत स्थानमें रहनेसे उस स्थानका स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, परन्तु हम वासनाके द्वारा अमुक पदार्थ के अमुक स्थानमें स्थित रहनेका ज्ञान करते हैं । अतएव बाह्य पदार्थोंका ज्ञान हमारी वासनाके कारण होता है, वास्तवमें बाह्य पदार्थ स्वतन्त्र वस्तु नहीं है)। जैन-यह ठीक नहीं। क्योंकि हम वासनासे पदार्थक प्रतिनियत स्थानका ज्ञान नहीं कर सकते । पदार्थके होनेपर ही जिस स्थानमें पदार्थका अस्तित्व होता है, उसी स्थानमें पदार्थका ज्ञान होता है, और उसी स्थानमें पदार्थज्ञानपूर्वक वासना उत्पन्न होती है। बाह्य पदार्थका अभाव होनेपर केवल उस वासना द्वारा पदार्थके प्रतिनियत स्थानका निश्चय कौन कर सकता है ? अतएव यदि बाह्य पदार्थ कोई वस्तु नहीं है, तो प्रतिनियत स्थानके निश्चयका कोई नियम नहीं बन सकता।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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