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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ ] स्याद्वादमञ्जरी १६१ घटादीनां प्रत्यक्षत्वे तेषामपि कथञ्चित् प्रत्यक्षत्वं योगिप्रत्यक्षेण च साक्षात्प्रत्यक्षत्वमवसेयम् । अनुपलब्धिस्तु सौक्ष्म्यात् । अनुमानादपि तसिद्धिः, यथा-सन्ति परमाणवः, स्थूलावयविनिष्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः, इत्यन्ताप्तिः। न चाणुभ्यः स्थूलोत्पाद इत्येकान्तः, स्थूलादपि सूत्रपटलादेः स्थूलस्य पटादेः प्रादुर्भावविभावनात् , आत्माकाशादेरपुद्गलत्वकक्षोकाराच्च । यत्र पुनरणुभ्यस्तदुत्पत्तिस्तत्र तत् कालादिसामग्रीसव्यपेक्ष क्रियावशात् प्रादुर्भूतं संयोगातिशयमपेक्ष्येयमवितथैव ॥ यदपि किञ्चायमनेकावयवाधार इत्यादि न्यगादि, तत्रापि कथञ्चिद्विरोध्यनेकावयवाविष्वग्भूतवृत्तिरवयव्यभिधीयते । तत्र च यद्विरोध्यनेकावयवाधारतायां विरुद्धधर्माध्यासनमभिहितं तत्कथञ्चिदुपेयत एव तावत् , अवयवात्मकस्य तस्यापि कथञ्चिदनेकरूपत्वात् । यच्चोपन्यस्तम् , अपि च असौ तेषु वर्तमानः कान्येनैकदेशेन वा वर्ततेत्यादि, तत्रापि विकल्पद्वयानभ्युपगम एवोत्तरम् , अविष्वग्भावेनावयविनोऽवयवेषु वृत्तेः स्वीकारात् ।। ___किञ्च, यदि बाह्योऽर्थो नास्ति, किमिदानी नियताकारं प्रतीयते । नीलमेतत् इति विज्ञानकारोऽयमिति चेत्, न । ज्ञानाद् बहिभूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे तु अहं नीलम इति प्रतीतिः स्यान्न तु इदं नीलम् इति । ज्ञानानां प्रत्येकमाकारभेदात् कस्यचित् 'अहम्' इति प्रतिभासः, कस्यचित् 'नीलमेतत्' इति चेत्, न । नीलाद्याकारवदहमित्याकारस्य व्यवस्थितत्वा ठीक नहीं। क्योंकि परमाणुओंके कार्यरूप घट आदिका प्रत्यक्षसे ज्ञान होनेपर उन परमाणुओंका भी कथंचित् प्रत्यक्षसे ज्ञान होता है, तथा योगिप्रत्यक्षसे उनका साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। उन परमाणुओंके अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे उनकी उपलब्धि नहीं होती। अनुमान प्रमाणसे भी उन परमाणुओंकी सिद्धि होती है। अनुमानपरमाणु अस्तिरूप है क्योंकि परमाणुओंके अभावमें स्थूल अवयवीको निष्पत्ति नहीं हो सकती; यह अन्तर्व्याप्ति है। (परमाणुरूप उपादानका उपादेयभूत कार्यमें स्व-स्वरूपसे अन्वय होनेसे, परमाणु और स्थूल अवयवीमें अन्तर्व्याप्य-व्यापक भावका सद्भाव होनेसे इनमें अन्तर्व्याप्ति सिद्ध होती है)। परमाणुओंसे स्थूल अवयवीका ही उत्पाद होता है-यह एकान्त नहीं है। क्योंकि स्थूल सूत्रसमूह आदिसे भी स्थूल पट आदिकी उत्पत्तिका स्पष्ट ज्ञान होता है; तथा, आत्मा, आकाश आदि की पुद्गलभिन्नता स्वीकार की गई है। जहाँ पुनः अणुओं से स्थूल की-स्थूल अवयवीभूत कार्य की उत्पत्ति होती है, वहाँ वह स्थूल अवयवीरूप कार्य, कालादिरूप सहकारियों की सामग्री की अपेक्षा रखनेवाली क्रिया के कारण, अतिशय संयोग की अपेक्षा से उत्पन्न होता है । अतः अवयवीभूत स्यूल कार्य की परमाणुओं से होनेवाली उत्पत्ति यथार्थ ही है। तथा, आप लोगों ने 'अवयवी के अनेक आधार माने हैं। ये अवयव यदि परस्पर विरोधी हों तो एक स्थूल अवयवी नहीं बन सकता । क्योंकि 'अवयवी में विरोधी धर्मों का अध्यारोप होता है'-ऐसा जो कहा है, उसमें भी कथंचित् विरोध आता है। ऐसे अनेक अवयवों के साथ जो अभेदरूप से रहता है, वह अवयवी कहा जाता है । वहाँ, 'परस्पर विरोधी अनेक अवयव अवयवी के आधारभूत होनेपर, अवयवीमें विरोधी धर्मोका अध्यारोप होता है-यह जो कहा है, उसे कथंचित् रूपसे स्वीकार किया ही गया है । तथा, आप लोगोंने जो प्रश्न किया था, 'अवयवी अवयवोंमें सम्पूर्ण रूपसे रहता है, अथवा एक देशसे ? सो हम दोनों ही विकल्पोंको नहीं मानते । हमारे मतके अनुसार अवयवी अवयवोंमें अविष्वग्भावसे रहता है। तथा, यदि बाह्य पदार्थ का अभाव है तो नियत रूपसे जो ज्ञान होता है वह किसका ज्ञान होता है ? यदि कहो कि 'यह नील है'-यह विज्ञानका ही आकार है तो यह ठीक नहीं । क्योंकि हमें ज्ञानसे बहिर्भूत नीलका संवेदन होता है। यदि ज्ञानकी नीलाकार परिणति हो तो 'मैं नील हूँ'-यह प्रतीति होनी चाहिये, 'यह नील है'-ऐसी प्रतीति नहीं। शंका-प्रत्येक ज्ञानका आकार भिन्न-भिन्न होता है, इसलिये कहीं 'मैं नोल हूँ' ऐसा ज्ञान होता है, और कहीं, 'यह पदार्थ नील है' ऐसा ज्ञान होता है । अतएव बाह्य और अंतरंग २१
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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