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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य, यो. व्य. श्लोक १६ सत्यकेशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः। स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविषयत्वान्न निरालम्बनम् । तथा च महाभाज्यकार:
"अणुहूयदिट्ठचिंतिय सुयपयइवियारदेवयाणूवा।
सुमिणस्य निमित्ताई पुण्णं पावं च णाभावो"५ यश्च ज्ञानविपयः स वाह्योऽर्थः। भ्रान्तिरियमिति चेत् चिरं जीव । भ्रान्तिर्हि मुख्येऽर्थे क्वचिद् दृष्टे सति करणापाटवादिनान्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा, यथा शुक्तौ रजतभ्रान्तिः । अर्थक्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि भ्रान्तिरुच्यते तहिं प्रलीना भ्रान्ताभ्रान्तव्यवस्था। तथा च सत्यमेतद्वचः
"आशामोदकतृप्ता ये ये चास्वादितमोदकाः।
रसवीर्य विपाकादि तुल्यं तेषां प्रसज्यते ॥" न चामून्यर्थदूषणानि स्याद्वादिनां बाधां विदधते, परमाणुरूपस्य स्थूलावयविरूपस्य चार्थस्याङ्गीकृतत्वात् । यच्च परमाणुपक्षखण्डनेऽभिहितं प्रमाणाभावादिति, तदसत् तत्कार्याणां
केशोंका ज्ञान नहीं किया है, उसे आकाशमें मिथ्या केशज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार स्वप्न में भी जानत् दशामें अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिये स्वप्नज्ञान भी सर्वथा निविषय नहीं है। महाभाष्यकार ( जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ) ने भी कहा है
"अनुभव किये हुए, देखे हुए, विचारे हुए, सुने हुए पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृतिके विकार, दैविक और जलप्रधान देश स्वप्नमें कारण होते हैं। सुख-निद्रा आनेसे पुण्य रूप, और सुख-निद्रा न आनेसे पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं । वास्तवमें स्वप्नके निमित्तोंका अभाव नहीं है, अर्थात् स्वप्न निविषय नहीं होता।"
तथा, ज्ञानका विषय हो बाह्य अर्थ है । यदि कहो कि ज्ञानका विषय बाह्य पदार्थ है, यह कथन भ्रान्तिरूप है, तो यह बहुत ठीक है। क्योंकि मुख्य पदार्थके कहीं देखे जानेपर इन्द्रियोंके रुग्ण आदि होनेसे कहीं किसी अन्य पदार्थमें, उस मुख्य पदार्थको विपर्यास रूपसे जाननेपर भ्रान्तिकी सिद्धि होती है; सीपीमें चाँदीको भ्रान्तिकी भाँति । (चाँदीको देखनेसे उसके शुभ्रत्वका ज्ञान होनेपर, सीपके शुभ्रत्वको देखनेसे जिस प्रकार सीपके विषयमें चांदीका होनेवाला ज्ञान भ्रान्तिरूप होता है, उसी प्रकार कहीं मुख्य पदार्थको देखनेपर, इन्द्रियोंके रुग्ण आदि होनेसे अन्य पदार्थमें विपर्यस्त अर्थात् अन्यत्र देखे हुए मुख्य पदार्थका जो ज्ञान होता है, वह भ्रांतिरूप होता है, यह सिद्ध हो जाता है। इस भ्रान्त ज्ञानसे भी बाह्यार्थके सद्भावकी ही सिद्धि होती है )। प्रयोजन भूत कार्यको उत्पत्ति करने में समर्थ होनेवाले पदार्थके विषयमें भी इस पदार्थका अस्तित्व भ्रान्तरूप है-यह जो कहा गया है तो इससे यह ज्ञान भ्रांत है, और यह ज्ञान अभ्रान्त, यह व्यवस्था ही नष्ट हो जायेगी। अतएव
"जो मनके लड्डू खाकर तृप्त हुए हैं और जिन्होंने वास्तवमें लड्डुओंका स्वाद चखा है, उन दोनोंके रस, वीर्य और विपाक आदिके समान होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है"-यह वचन सत्य है।
तथा, आप लोगोंने ज्ञानाद्वैतका प्रतिपादन करते हुए जो परमाणुरूप और स्थूल अवयवीरूप बाह्य पदार्थोंका खण्डन किया, उससे स्याद्वादियोंके सिद्धान्तमें कोई बाधा नहीं आती। क्योंकि जैन लोगोंने परमाणु
और स्थूल अवयवी दोनों रूप बाह्य पदार्थोंको स्वीकार किया है। तथा, परमाणुपक्षका खण्डन करते हुए 'परमाणु रूप वाह्य पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसके साधक प्रमाणोंका अभाव है-यह जो कथन है, वह भी
१. छाया-अनुभूतदृष्टचिन्तितश्रुतप्रकृतिविकारदेविकानूपाः वा। स्वप्नस्य निमित्तानि पुण्यं पापं च नाभावः ॥
-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः विशेषावश्यकभाष्ये १७०३ ।