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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६] स्याद्वादमञ्जरी १५९ अलङ्कारकारेणाप्युक्तम् "यदि संवेद्यते नीलं कथं बाह्यं तदुच्यते । न चेत् संवेद्यते नीलं कथं बाह्यं तदुच्यते ॥" यदि बाह्योऽर्थो नास्ति, किंविषयस्तीयं घटपटादिप्रतिभासः इति चेत्, ननु निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तितः, निर्विषयत्वात् , आकाशकेशज्ञानवत् , स्वप्नज्ञानवद् वेति । अत एवोक्तम् "नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः। ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥ बाह्यो न विद्यते ह्यर्थो यथा बालैर्विकल्प्यते । वासनालुठितं चित्तमर्थाभासे प्रवर्तते" ।। इति । तदेतत्सर्वमवद्यम् । ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दः। ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं, ज्ञप्तिर्वा ज्ञानमिति । अस्य च कर्मणा भाव्यं, निर्विषयाया ज्ञप्तेरघटनात् । न चाकाशकेशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यम् , तस्याप्येकान्तेन निर्विषयत्वाभावात् । न हि सर्वथागृहीतवाले इन्द्रियगोचर दृश्य पदार्थ अस्तिरूप नहीं हैं।" अलंकारकार (प्रज्ञाकरगुप्त ) ने भी कहा है "यदि नील पदार्थका अनुभव किया जाता है तो वह नील पदार्थ बाह्य पदार्थ है, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यदि नील पदार्थका अनुभव नहीं किया जाता तो वह नील पदार्थ बाह्य पदार्थ है, ऐसा कैसे कह सकते हैं।" ( जो जिसका होता है वह उसका अनुभव कर सकता है। नील पदार्थका अनुभव ज्ञानके द्वारा किया जाता है तो वह नील पदार्थ ज्ञानका-ज्ञानरूप-होना चाहिये । नील पदार्थका ज्ञान नहीं होता तो उसे बाह्य पदार्थ नहीं कह सकते । जिस पदार्थका किसी भी हालतमें ज्ञान होता ही नहीं, उसका बाह्य अस्तित्व नहीं हो सकता, और जिसका अस्तित्व होता है उसका किसी न किसी प्रकारसे ज्ञान होता ही है)। शंका-यदि बाह्य पदार्थका अस्तित्व नहीं है तो घट, पट आदिका ज्ञान किस प्रकार होता है ? समाधान-जिस प्रकार आकाशकेशरूप बाह्य पदार्थके अभावमें आकाशकेशका ज्ञान होता है, अथवा जिसप्रकार स्वप्नज्ञानका विषय बने हुए पदार्थका वस्तुतः सद्भाव न होनेपर भी स्वप्न में उसका ज्ञान होता है, उसी तरह घट, पट आदि बाह्य पदार्थोंका अभाव होनेसे, आलंबनरहित होनेपर भी, अनादि मिथ्यावासनाके कारण घट, पट आदिका ज्ञान होता है । इसलिए कहा है "जिसका बुद्धिके द्वारा अनुभव किया जाता है, वह बुद्धिसे भिन्न नहीं होता। अनुभव बुद्धिसे भिन्न नहीं है। ग्राह्य-ग्राहक ( अनुभाव्य-अनुभावक ) भावसे रहित होनेसे बुद्धि स्वयं प्रकाशित होती है। मूों द्वारा कल्पित बाह्य अर्थ विद्यमान नहीं है। (अनादि ) वासनासे प्रतिहत चित्त (बुद्धि ) अर्थाभास (अयथार्थ अर्थ ) में प्रवृत्त होता है।" (४) उत्तरपक्ष-यह ठीक नहीं है। ज्ञान शब्द क्रियाका द्योतक है। जिसके द्वारा जाना जाय, अथवा जानने मात्रको ज्ञान कहते हैं। ज्ञान ( क्रिया) के कोई कर्म अवश्य होना चाहिये, क्योंकि ज्ञान निर्विषय नहीं होता । यदि आकाशमें निविषय केशज्ञानकी तरह मिथ्या ज्ञानको ही ज्ञानका विषय मानो, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि आकाशमें केशज्ञान भी एकान्त रूपसे निविषय नहीं है। कारण कि जिसने कभी वास्तविक १. प्रज्ञाकरगुप्तकृतः प्रमाणवातिकालङ्काराख्यो बौद्धग्रन्थः । २. प्रमाणवातिके ३-३२७ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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