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________________ १५० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ प्रयोगस्त्ववेवम् । यद्विनश्वरस्वरूपं तदुत्पत्तेरनन्तरानवस्थायि, यथान्त्यक्षणवर्तिघटस्य स्वरूपम् । विनश्वरस्वरूपं च रूपादिकमुदयकाले, इति स्वभावहेतुः'। यदि क्षणक्षयिणो भावाः कथं तर्हि स एवायमिति प्रत्यभिज्ञा स्यात् । उच्यते । निरन्तरसदृशापरापरोत्पादात् , अविद्यानुवन्धाच्च । पूर्वक्षणविनाशकाल एव तत्सदृशं क्षणान्तरमुदयते। तेनाकारविलक्षणत्वाभावादव्यवधानाचात्यन्तोच्छेदेऽपि स एवायमित्यभेदाध्यवसायी प्रत्ययः प्रसूयते । अत्यन्तभिन्नेष्वपि लूनपुनरुत्पन्नकुंशकाशकेशादिषु दृष्ट एवायं स एवायम् इति प्रत्ययः, तथेहापि किं न संभाव्यते । तस्मात् सर्वं सत् क्षणिकमिति सिद्धम् । अत्र च पूर्वक्षण उपादानकारणम् उत्तरक्षण उपादेयम् मान मिलनेको अनुपला नश्वर ही मानना चाहिये। अतएव प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होनेके दूसरे क्षणमें ही नष्ट हो जाता है, इसलिये प्रत्येक पदार्थ क्षणविध्वंसी है। जिस प्रकार अन्त्यक्षणवति घटका-विनाशको प्राप्त होनेवाले घटका-स्वरूप विनश्वर होनेसे, उसके विनाशके अनन्तर घट स्वस्वरूपसे ( अवस्थायी) विद्यमान नहीं रहता, उसी प्रकार जिस पदार्थका स्वरूप विनश्वर होता है, वह पदार्थ उत्पत्तिके बाद अवस्थायी-अक्षणिक-नहीं होता। (जो स्वभाव स्वभाववानका का नाश होने पर नष्ट हो जाता है, वह विनश्वर होता है। पदार्थका स्वभाव विनश्वर होने पर उसकी अभिव्यक्ति होते ही उसका नाश हो जाता है। जिस पदार्थका स्वभाव विनश्वर होता है उसकी उत्पत्तिके बाद उसका स्वभाव विनश्वर होनेसे वह अवस्थायी-अक्षणिक नहीं होता)। पदार्थको उत्पत्तिके कालमें पदार्थके रूप आदिका स्वभाव विनश्वर होता है। इस प्रकार विनश्वरस्वरूपत्व रूप हेतु स्वभावहेतु रूप है। (बौद्ध लोगोंने स्वभावहेतु, कार्यहेतु और अनुपलब्धिहेतुके भेदसे हेतुके तीन भेद माने हैं। जैसे 'यह वृक्ष है, शिशिपा ( सीसम ) होनेसे'-यहां वृक्षत्व और शिशिपात्वका कार्य-कारण संबंध न हो कर स्वभाव सम्बन्ध है, अतएव यह स्वभावहेतु अनुमान है । 'यहाँ अग्नि है, धूम होनेसे'-यहां पर कार्य-कारण सम्बन्ध है, इसलिये यह कार्यहेतु अनुमान है । पदार्थके न मिलनेको अनुपलब्धि कहते हैं। जैसे 'देवदत्त घरमें नहीं है, क्योंकि वह वहाँ अनुपलब्ध है'। स्वभावहेतुमें एक स्वभावसे दूसरे स्वभावका, और कार्यहेतुमें कार्यसे कारण अनुमान होता है । स्वभाव और कार्यहेतु वस्तुको उपस्थितिको, और अनुपलब्धिहेतु वस्तुको अनुपस्थितिको सिद्ध करते हैं )। शंका-यदि पदार्थ क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले हैं, तो प्रत्येक क्षणमें नष्ट होनेवाले घटकी उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे लगा कर अन्तिम समय तक घटके एकत्वका प्रत्यभिज्ञान-'यह वही है नहीं हो सकता। बौद्ध-समान रूप अपर-अपर क्रमवर्ती क्षणमात्र कालवर्ती पदार्थों की निरन्तर उत्पत्ति होनेके कारण तथा आत्माका अविद्यासे सम्बन्ध होनेके कारण, 'यह वही है'-इस प्रकार एकत्वका प्रत्यभिज्ञान होता है । (प्रत्येक उत्तरक्षण पूर्वक्षणसे भिन्न होने पर भी, पूर्वक्षणोंमें होनेवाली सदृशताके कारण, आत्माके साथ अविद्याका सम्बन्ध होनेसे, आत्मा उन क्षणोंको एक रूप समझती है जिससे आत्माको 'यह वही है'यह प्रत्यभिज्ञान होता है )। पूर्वकालवर्ती क्षणिक पदार्थका विनाश होनेके कालमें ही पूर्वक्षणवर्ती क्षणिक पदार्थके सदृश उत्तरक्षणवर्ती क्षणिक पदार्थ उत्पन्न होता है। अतएव पूर्वक्षणवर्ती पदार्थके आकारसे उत्तर क्षणवर्ती क्षणिक पदार्थका आकार विलक्षण-विसदृश-न होनेसे, तथा पूर्वोत्तरकालवर्ती दोनों क्षणिक पदार्थोंमें व्यवधान न होनेसे, पूर्वकालीन क्षणिक पदार्थका आत्यंतिकरूपसे विनाश होने पर भी, 'यह वही है'-इस प्रकार पूर्वोत्तर क्षणवर्ती क्षणिक पदार्थों में अभेदका-एकत्वका निश्चय करनेवाला ज्ञान उत्पन्न होता है । जिस प्रकार पहले काटे हुए और फिरसे उत्पन्न होनेवाले कुश (घास ), काश और केश आदिके पूर्व और स्वभावका, और का अनु १. त्रीण्येव च लिङ्गानि। अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति । तत्रानुपलब्धिर्यथा न प्रदेशविशेषे क्वचिद् घटोपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति । स्वभावः स्वसत्तामात्रभाविनि साध्यधर्मे हेतुः । यथा वृक्षोऽयं शिशिपात्वादिति । कार्य यथाग्निरत्र धूमादिति । २. पूर्वं लूनाश्छिन्नाः कुशादयः पुनरुत्पद्यन्ते ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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