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अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ ] स्याद्वादमञ्जरी
१५१ इति पराभिप्रायमङ्गीकृत्याह न तुल्यकालः इत्यादि ।।
ते विशकलितमुक्तावलीकल्पा' निरन्वयविनाशिनः पूर्वक्षणा उत्तरक्षणान् जनयन्तः किं स्वोत्पत्तिकाले एव जनयन्ति, उत क्षणान्तरे ? न तावदाद्यः। समकालभाविनोर्युवतिकुचयोरि
पादानोपादेयभावाभावात् । अतः साधूक्तम् न तुल्यकालः फलहेतुभाव इति । न च द्वितीयः। तदानीं निरन्वयविनाशेन पूर्वक्षणस्य नष्टत्वादुत्तरक्षणजनने कुतः संभावनापि । न चानुपादानस्योत्पत्तिदृष्टा, अतिप्रसङ्गात् । इति सुष्ठु व्याहृतं हेतौ विलीने न फलस्य भाव इति । पदार्थस्त्वनयोः पादयोः प्रागेवोक्तः। केवलमत्र फलमुपादेयं हेतुरुपादानं तद्भाव उपादानोपादेयभाव इत्यर्थः॥
यञ्च क्षणिकत्वस्थापनाय मोक्षाकरगुप्तेनानन्तरमेव प्रलपितं तत् स्याद्वादवादे निरवकाशमेव । निरन्वयनाशवर्ज कथंचित्सिद्धसाधनात् । प्रतिक्षणं पर्यायनाशस्यानेकान्तवादिभिरभ्युपगमात् । यदप्यभिहितम् 'न ह्येतत् संभवति जीवति च देवदत्तो मरणं चास्य भवतीति, तदपि संभवादेव न स्याद्वादिनां क्षतिमावहति । यतो जीवनं प्राणधारणं, मरणं चायुर्दलिकक्षयः । ततो जीवतोऽपि देवदत्तस्य प्रतिसमयमायुर्दलिकानामुदीर्णानां क्षयादुपपन्नमेव मरणम् । न च वाच्यमन्त्यावस्थायामेव कृत्स्नायुर्दलिकक्षयात् तत्रैव मरणव्यपदेशो युक्त इति । तस्यामप्य
उत्तर क्षणोंमें अत्यन्त भेद होनेपर भी 'यह वही घास है, 'यह वही काश हैं', और 'यह वही केश है', ऐसा ज्ञान होता है, वैसे ही क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले प्रत्येक पदार्थोके पूर्व और उत्तर क्षणोंमें सर्वथा भेद होनेपर भी उनमें एकत्वका प्रत्यभिज्ञान क्यों नहीं हो सकता है ? अतः यह सिद्ध हो जाता है कि समस्त पदार्थ क्षणिक हैं । यहाँ पूर्वकालवर्ती क्षणिक पदार्थ उपादानकारण और उत्तर क्षणवर्ती क्षणिक पदार्थ उपादेय है। अतएव दूसरेके अभिप्रायको मानकर 'न तुल्यकालः' इत्यादि कहा है ।
(२) उत्तरपक्ष-आपके मतमें स्खलित मोतियोंकी मालाके समान, सर्वथा नाश होनेवाले पूर्वक्षण उत्तरक्षणोंको उत्पन्न करते समय अपनी उत्पत्तिके क्षणमें ही उत्तरक्षणोंको उत्पन्न करते हैं, अथवा दूसरे क्षणमें उत्पन्न करते हैं ? अर्थात् पूर्व और उत्तरक्षण एक साथ उत्पन्न होते हैं, या क्रमसे ? पूर्वक्षण और उत्तरक्षण एक साथ उत्पन्न नहीं हो सकते। क्योंकि जैसे एक हाथसे दूसरा हाथ पैदा नहीं होता, वैसे ही पूर्वक्षण उत्तर क्षणको उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि एक ही कालमें होनेवाले दो पदार्थों में उपादान-उपादेय भाव नहीं बन सकता। इसलिये कहा है, 'हेतु और उसका फल दोनों एक साथ नहीं हो सकते' (न तुल्यकालः फलहेतुभावः । ) यदि कहो कि पूर्वक्षण उत्तरक्षणको दूसरे क्षणमें उत्पन्न करता है, तो यह भी नहीं बन सकता । क्योंकि पूर्वक्षण सर्वथा विनाशी है, उसका सर्वथा नाश हो जानेसे उससे उत्तरक्षण उत्पन्न नहीं हो सकता। अतएव दूसरे क्षणमें उपादानकारण रूप पूर्वक्षणका सर्वथा नाश होनेके पूर्वक्षणसे उत्तरक्षणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि उपादानके विना भी उपादेयकी उत्पत्ति होने लगे, तो प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति माननी चाहिये । अतएव 'हेतुके नष्ट हो जानेपर फलका भी अभाव हो जाता है ( हेतौ विलीने न फलस्य भावः )यह हमने ठीक कहा है।
तथा क्षणिकत्व सिद्ध करनेके लिये जो मोक्षाकरगुप्त नामक बौद्धाचार्यने नित्यत्वका खंडन किया है, उसे स्याद्वादमें अवकाश नहीं है। क्योंकि स्याद्वादी लोग "निरन्वय विनाशको' छोड़कर बौद्ध मतका ही समर्थन करते हैं। क्योंकि अनेकान्तवादियोंने भी पर्यायोंकी अपेक्षा प्रतिक्षण नाश स्वीकार किया है। तथा, आपने जो कहा कि 'जीते हुए देवदत्तको मरा हुआ नहीं कह सकते' उससे भी स्याहादियोंको कोई क्षति नहीं होती । क्योंकि स्याद्वादियोंके अनुसार, प्राणोंके धारण करनेको जीवन, और आयुके अंशोंके नाश होनेको मरण कहते हैं। अतएव देवदत्तके जीवित दशामें भी प्रत्येक समय उदय आनेवाले आयुके निषेकोंका क्षय होनेसे मरण होता रहता है। यदि आप लोग कहें कि अन्त अवस्थामें सम्पूर्ण आयुके नाश हो जानेको ही
१. सूत्रविगलितमौक्तिकमालासदृशाः ।