________________
अन्य. यो. व्य. श्लोक १६] स्याद्वादमञ्जरी
१४५ च्छेदरूपमेव ज्ञानमुत्पद्यते । न च परिच्छेदादृतेऽन्यद् ज्ञानफलम् , भिन्नाधिकरणत्वात् । इति सर्वथा न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां भिन्नं फलमस्तीति ।।"
एतच्च न समीचीनम् । यतो यद्यस्मादेकान्तेनाभिन्नं, तत्तेन सहैवोत्पद्यते । यथा घटेन घटत्वम् । तैश्च प्रमाणफलयोः कार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यते । प्रमाणं कारणं फलं कार्यमिति । स चैकान्ताभेदे न घटते । न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव कार्यकारणभावो युक्तः । नियतप्राकालभावित्वात् कारणस्य । नियतोत्तरकालभावित्वात् कार्यस्य । एतदेवाह न तुल्यकालः फलहेतुभाव इति । फलं कार्य हेतुः कारणम् तयोर्भावः स्वरूपम् , कार्यकारणभावः । स तुल्यकालः समानकालो न युज्यत इत्यर्थः॥ _अथ क्षणान्तरितत्वात् तयोः क्रमभावित्वं भविष्यतीत्याशङ्कयाह । हेतौ विलीने न फलस्य भाव इति । हेतौ कारणं प्रमाणलक्षणे विलीने क्षणिकत्वादुत्पत्त्यनन्तरमेव निरन्वयं विनष्टे फलस्य प्रमाणकार्यस्य न भावः सत्ता, निर्मूलत्वात् । विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं फलमिति प्रतीयते नान्यथा, अतिप्रसङ्गात् । किश्च, हेतुफलभावः सम्बन्धः स च द्विष्ठ एव स्यात् । न चानयोः क्षणक्षयैकदीक्षितो भवान् सम्बन्धं क्षमते । ततः कथम् 'अयं हेतुरिदं
ज्ञानका फल-कार्य-नहीं है; क्योंकि ज्ञानफलका आश्रय ज्ञान होता है और हानोपादानका अधिकरण ज्ञानसे भिन्न पुरुष होता है)। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणका फल प्रत्यक्ष और अनुमान रूप ज्ञानसे सर्वथा भिन्न नहीं होता।"
(१) उत्तरपक्ष-यह ठीक नहीं है। क्योंकि जो जिससे एकान्तरूपसे अर्थात् सर्वथा अभिन्न होता है वह उसीके साथ उत्पन्न होता है । जैसे, घटसे घटत्व सर्वथा अभिन्न होता है, इसलिये घटके साथ घटत्व, उत्पत्ति होती है । तथा, बौद्ध लोग प्रमाण और प्रमाणके फलमें कार्यकारण सम्बन्ध मानते है-प्रमाणको कारण और प्रमाणके फलको उसका कार्य कहते हैं । यह कार्य-कारण भाव प्रमाण और उसके फलको सर्वथा अभिन्न माननेमें नहीं बनता। जैसे एक साथ उत्पन्न होनेवाले गायके बांये और दाहिने सींगोंमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं हो सकता, उसी प्रकार एक साथ उत्पन्न होनेवाले प्रमाण और फलमें कार्य-कारणभाव उचित नहीं। क्योंकि कारण नियतरूपसे पहले, और कार्य नियतरूपसे कारणके उत्तरकालमें होता है। कार्य-कारणभाव समान काल वाला नहीं होता। अतएव प्रमाण और प्रमाणका फल सर्वथा अभिन्न नहीं हो सकते ।
शंका-प्रमाण और प्रमाणके फलमें क्षणमात्रका अन्तर पड़ता है, अतएव प्रमाण और प्रमाणका फल क्रमसे होते हैं। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि बौद्ध लोगोंके क्षणिकवादमें प्रत्येक वस्तु एक क्षणके लिये ठहर कर दूसरे क्षणमें नष्ट हो जाती है, अतएव प्रमाणके क्षणिक होनेके कारण प्रमाण (कारण) के उत्पन्न होते ही सर्वथा नष्ट हो जानेसे प्रमाणके फल ( कार्य) की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कारण रूप प्रमाणका सर्वथा (निरन्वय) विनाश हो जाता है। कार्यकी उत्पत्ति उसके कारणके रहने पर ही होती है, अन्यथा नहीं । यदि कारणके विना कार्य उत्पन्न होने लगे, तो अतिप्रसंग हो जायेगा-बीजके विना वृक्षकी उत्पत्ति माननी होगी। अतएव प्रमाण और प्रमाणके फलमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं हो सकता । तथा, प्रमाण और उसके फलका सम्बन्ध दो पदार्थोंमें ही रहता है। किन्तु क्षण-क्षणमें नाश होनेवाले प्रमाण और प्रमाणके फलमें कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । अतएव 'यह हेतु है, और यह उसका फल है' यह निश्चयात्मक ज्ञान
१. हरिभद्रसूरिकृता न्यायप्रवेशवृत्तिः पृ० ३६ ।।
२. पार्श्वदेवकतन्यायप्रवेशवत्तिपनिकायां-भिन्नमधिकरणमाश्रयो यस्य फलस्य तत्तथा"अयमर्थः । ज्ञानाद्वयतिरिक्तं ययुच्यते फलं हानोपानादिकं तदा तत्फलं प्रमातुरेव स्यान्न ज्ञानस्य । तथाहि ज्ञानेन प्रदर्शितेऽर्थे हानादिकं तद्विषये पुरुषस्यैवोपजायते अतो हानादिकस्य भिन्नाश्रयत्वान्न फलत्वं मन्तव्यं ।
१९