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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य, यो. व्य. श्लोक १६ इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुः ये च बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण ज्ञानाद्वैतमेवास्तीति ब्रुवते तन्मतस्य विचार्यमाणत्वे विशरारुतामाह न तुल्यकालः फलहेतुभावो हेतौ विलीने न फलस्य भावः । न संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद् विलूनशीर्णं सुगतेन्द्र जालम् ॥१६॥ वौद्धाः किल प्रमाणात् तत्फलमेकान्तेनाभिन्नं मन्यन्ते । तथा च तत्सिद्धान्तः-"उभयत्र तदेव ज्ञानं प्रमाणफलमधिगमरूपत्वात् ।" "उभयत्रेति प्रत्यक्षेऽनुमाने च तदेव ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानलक्षणं फलं कार्यम् । कुतः। अधिगमरूपत्वादिति परिच्छेदरूपत्वात् । तथाहि । परिप्रतिबिंव पड़ता है। चेतनशक्तिको परिणमनशील और कर्ता माने बिना चेतनशक्तिका बुद्धिमें परिवर्तन होना भी संभव नहीं है। पूर्व रूपके त्याग और उत्तर रूपके ग्रहण किये बिना पुरुष सुख-दुखका भोक्ता नहीं कहला सकता । इस पूर्वाकारके त्याग और उत्तराकारके ग्रहण माननेसे पुरुषको निष्क्रिय नहीं कह सकते। तथा, यह पुरुप अनादिकालसे अविवेकके कारण प्रकृतिसे बंध रहा है। परन्तु प्रकृति अचेतन है, इसलिये वंध पुरुषके ही मानना चाहिये। तथा, प्रकृतिका स्वभाव सदा प्रवृत्ति करना है, अतएव प्रकृति अपने स्वभावसे कभी निवृत्त नहीं हो सकती, इसलिये पुरुषको कभी मोक्ष नहीं हो सकता ! (ख) बुद्धिको जड़ मानना भी विरुद्ध है, क्योंकि बुद्धिको जड़ माननेसे उससे पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता। जिस प्रकार दर्पणमें पुरुषका प्रतिबिम्ब पडनेसे अचेतन दर्पण चेतन नहीं हो सकता, उसी तरह अचेतन बुद्धि चेतन पुरुषके प्रतिबिम्बसे चेतन नहीं कही जा सकती। अतएव धर्म आदि बुद्धिके आठ गुण मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि बुद्धि अचेतन है। इसी तरह अहंकारको भी आत्माका ही गुण मानना चाहिये, बुद्धिका नहीं। सांख्य (२) (क ) आकाश आदि पाँच तन्मात्राओंसे उत्पन्न होते हैं। (ख ) ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। जैन (क) आकाश आदिकी पाँच तन्मात्राओंसे उत्पत्ति मानना अनुभवके विरुद्ध है । सत्कार्यवाद (नित्यैकान्तवादके ) माननेवाले सांख्य लोग मी आकाशको नित्य मानते हैं, यह आश्चर्य है। आकाशको सभी वादियोंने नित्य माना है। (ख) वाक, पाणि आदिको अलग इन्द्रिय नहीं कह सकते। क्योंकि वाक, पाणि आदि कर्म-इन्द्रियोंसे होनेवाले कार्य शरीरके अन्य अवयवोंसे भी किये जा सकते हैं। अतएव वाक् आदिको अलग इन्द्रिय मानना ठीक नहीं। यदि इन्हें इन्द्रिय माना जाय तो शरीरके अन्य अंगोपांगोंको भी इन्द्रिय कहना चाहिये। अब, प्रमाणसे प्रमाणके फल (प्रमितिको ) सर्वथा भिन्न माननेवाले, तथा बाह्य पदार्थोंका निषेध करके ज्ञानाद्वैतको स्वीकार करनेवाले बौद्धोंका खंडन करते हैं श्लोकार्थ-हेतु और हेतुका फल साथ साथ नहीं रह सकते, और हेतुके नाश हो जानेपर फलकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि जगत्को विज्ञानरूप माना जाय तो पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव बुद्धका इन्द्रजाल विशीर्ण हो जाता है। व्याख्यार्थ-(१) बौद्धपक्ष-प्रमाण और प्रमाणका फल दोनों एकान्तरूपसे अभिन्न हैं । सिद्धान्त भी है "जो ज्ञान प्रमिति और अनुमितिका कारण होता है वही ज्ञान दोनोंमें प्रमाण फलरूप है, क्योंकि ज्ञान अधिगम रूप है।" "उभयत्र अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणमें प्रत्यक्षरूप और अनुमानरूप ज्ञान ही फलरूप ( कार्यरूप ) है, क्योंकि वह अधिगम रूप-परिच्छेद रूप है। तथाहि-ज्ञप्ति रूप ही ज्ञान उत्पन्न होता है। पदार्थोंको जाननेकी क्रियाके अतिरिक्त ज्ञानका कोई दूसरा फल नहीं हो सकता, क्योंकि परिच्छेदका अधिकरण और परिच्छेदसे भिन्न ज्ञानके फलका अधिकरण भिन्न-भिन्न होते हैं। (हानोपादानादि १. दिङ्नागविरचितन्यायप्रवेशे पृ०७।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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