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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १५] स्याद्वादमञ्जरी १४३ ताऽजिघ्रतामूकताकौण्यपगुत्वक्लैव्योदावर्तमत्ततारूपैकादशेन्द्रियवधतुष्टिनवकविपर्ययसिद्धय - ष्टकविपर्ययलक्षणसप्तदशवुद्धिवधभेदादष्टाविंशतिधा अशक्तिः । प्रकृत्युपादानकालभोगाख्या अभ्भःसलिलौघवृष्ट्यपरपर्यायवाच्याश्चतस्र आध्यात्मिक्यः। शब्दादिविषयोपरतयश्चार्जनरक्षणक्षयभोगहिंसादोषदर्शनहेतुजन्मानः पञ्चवाह्यास्तुष्टयः । ताश्च पारसुपारपारापारानुत्तमाम्भउत्तमाम्भःशब्दव्यपदेश्याः । इति नवधा तुष्टिः। त्रयो दुःखविघाता इति मुख्यास्तिस्रः सिद्धयः प्रमोदमुदितमोदमानाख्याः। तथाध्ययनं शब्द ऊहः सुहृत्प्राप्तिर्दानमिति दुःखविघातोपायतया गौण्यः पञ्चतारसुतारतारताररम्यकसदामुदिताख्याः। इत्येवमष्टधा' सिद्धिः । धृतिश्रद्धासुखविविदिषाविज्ञप्तिभेदात् पञ्चकर्मयोनयः । इत्यादीनां संवरप्रतिसंवरादीनां च तत्त्वकौमुदीगौडपादभाण्यादिप्रसिद्धानां विरुद्धत्वमुद्भावनीयम् ।। इति काव्यार्थः ।।१५।। है-वाचस्पति मिश्र); तथा ब्राह्मण आदिके भेदोंकी अपेक्षा न करके एक प्रकारका मनुष्ययह चौदह प्रकारका भौतिक सर्ग कहा जाता है। (भौतिक सर्ग ऊर्ध्व, अधः और मध्यलोकके भेदसे तीन प्रकारका है। आकाशसे लेकर सत्यलोक पर्यत ऊर्ध्वलोकमें सत्त्व, पशुसे लेकर स्थावर पर्यत अधोलोकमें तम, और ब्रह्मसे लेकर वृक्ष पर्यंत मध्यलोकमें रजकी बहुलता है। सात द्वीप और समुद्रोंका मध्य लोकमें अन्तर्भाव होता है) । (ग) ग्यारह प्रकारके इन्द्रियवध और सतरह प्रकारके बुद्धिवधको मिला कर २८ प्रकारकी अशक्ति होती है। बधिरता ( श्रोत्र ), कुंठता ( वचन ), अंधापन (चक्षु ), जड़ता (स्पर्श ), गंधका अभाव (घ्राण ), गूंगापन ( जिह्वा ), लूलापन ( हाथ ), लंगड़ापन ( पैर), नपुंसकता (लिंग), गुदग्रह ( पायु), तथा उन्मत्तत्ता ( मन ), यह ग्यारह इन्द्रियोंका वध है। नौ तुष्टि और आठ सिद्धिको उलटा करनेसे सतरह प्रकारका बुद्धिवध होता है। प्रकृति ( अंभ), उपादान ( सलिल ), काल ( ओघ ), भोग ( वृष्टि ) इन चार आध्यात्मिक तुष्टि, और पांच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्तिरूप उपार्जन, रक्षण, क्षय, भोग और हिंसासे उत्पन्न होनेवालो पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमांभ और उत्तमांभ नामक पाँच बाह्य तुष्टियोंको मिला कर नौ तुष्टि होती हैं। तीन प्रकारके दुःखोंके नाशसे उत्पन्न होनेवाली प्रमोद मुदितमोद और मान नामक तीन मुख्य सिद्धि; अध्ययन, शब्द, तर्क, सच्चे मित्रोंकी प्राप्ति, और दानसे होनेवाली तार, सुतार, तारतार, रम्यक और सदामुदित नामक पाँच गौण सिद्धियोंको मिला कर आठ सिद्धियां होती है। (घ) धृति, श्रद्धा, सुख, वाद करनेकी इच्छा तथा ज्ञान ये पांच कर्मयोनि है। इसी प्रकार संवर, प्रतिसंवर आदिकी विरुद्ध कल्पनायें सांख्यतत्त्वकौमुदी, गौड़पादभाष्य आदि ग्रंथोंमें की गई हैं । यह श्लोकका अर्थ है ॥ भावार्थ-सांख्य (१) चित्शक्ति (पुरुष अथवा चेतनशक्ति) से पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता। अचेतन बुद्धिसे ही पदार्थ जाने जाते हैं। यह बुद्धि पुरुषका धर्म नहीं है, केवल प्रकृतिका विकार है। इस अचेतन बुद्धिमें चित्रशक्तिका प्रतिबिम्ब पड़नेसे चित्रशक्ति अपने आपको बुद्धिसे अभिन्न समझती है, इसलिये पुरुषमें 'मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' ऐसा ज्ञान होता है। चित्शक्तिके प्रतिबिम्ब पड़नेसे यह अचेतन बुद्धि चेतनकी तरह प्रतिभासित होने लगती है। इस बुद्धिके प्रतिबिम्बका पुरुषमें झलकना ही पुरुषका भोग है। वास्तवमें बंध और मोक्ष प्रकृतिके हो होता है, पुरुष और प्रकृतिका अभेद होनेसे पुरुषके संसार और मोक्षका सद्भाव माना जाता है । वास्तवमें पुरुष निष्क्रिय और निर्लेप है। जैन-(क) चेतनशक्तिको ज्ञानसे शून्य कहना परस्पर विरुद्ध है । यदि चेतनशक्ति स्व और परका ज्ञान करनेमें असमर्थ है, तो उसे चेतनशक्ति नहीं कह सकते । तथा, अमूर्त चेतनशक्तिका बुद्धिमें प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। क्योंकि मूर्त पदार्थका ही १. सांख्यकारिकागौडपादभाष्ये सांख्यतत्त्वकौमुद्यां च कारिका ५३ । २. 'संचारप्रतिसंचारादीनाम्' इति पाठान्तरं ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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