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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ फलम्' इति प्रतिनियता प्रतीतिः । एकस्य ग्रहणेऽप्यन्यस्याग्रहणे तदसंभवात् ।
"द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिनैकरूपप्रवेदनात् ।
द्वयोः स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम् ॥१ इति वचनात् ॥
यद्यपि धर्मोत्तरेण "अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् । तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेः” इति न्यायबिन्दुसूत्रं विवृण्वता भणितम् - "नीलनिर्भासं हि विज्ञानं, यतस्तस्माद् नीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते, न तद्वशात् तज्ज्ञानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेऽवस्थापयितुं नीलसदृशं त्वनुभूयभानं नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते । न चात्र जन्यजनकभावनिवन्धनः साध्यसाधनभावः। येनैकस्मिन् वस्तुनि विरोधः स्यात् । अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन तत एकस्य वस्तुनः किञ्चिद्रूपं प्रमाणं किञ्चित् प्रमाणफलं न विरुध्यते । व्यवस्थापनहेतुहि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपम"' इत्यादि ।
नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमाण और प्रमाणका फल दोनों क्षणिक होनेसे एक साथ नहीं रहते। इसलिये प्रमाणके फल, और फलके होनेसे प्रमाणका ज्ञान नहीं हो सकता। कहा भी है
___ "दो वस्तुओंमें रहनेवाले सम्बन्धका ज्ञान दोनों वस्तुओंके ज्ञान होने पर ही हो सकता है । यदि दोनों वस्तुओंमेंसे एक वस्तु रहे, तो उस सम्बन्धका ज्ञान नहीं होता।"
बौद्ध-"अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् । तदशादर्थप्रतीतिसिद्धेः"-अर्थके साथ होनेवाली समानरूपताके कारण अर्थनिर्णयको सिद्धि हो जानेसे अर्थके साथ होनेवाली समानरूपता प्रमाण है-इस न्यायबिन्दुके सूत्रका विवरण करनेवाले धर्मोत्तरने कहा है-"जिस कारण विज्ञानमें नील (नील वर्ण पदार्थ ) का प्रतिभास होता है, उस कारण नीलकी प्रतीति होती है। जिन चक्षु आदि इन्द्रियोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, उन इन्द्रियोंके अधीन होनेसे इन्द्रियजन्य वह ज्ञान 'नील पदार्थका यह ज्ञान है' इस प्रकार संवेदन नहीं कर सकता, किन्तु अनुभयमान नील ( पदार्थके ) सदश ज्ञान ( नोलाकार ज्ञान ) नील पदार्थका ज्ञान है, ऐसा संवेदन किया जाता है। यहाँ प्रमाण और प्रमाणके फलमें जन्य-जनकभाव ( कार्य-कारणभाव ) जिसका कारण है ऐसा साध्य-साधनभाव नहीं है, जिससे एक वस्तुमें विरोध उत्पन्न हो; किन्तु यहाँ व्यवस्थाप्यव्यवस्थापक (निश्चय-निश्चायक ) रूपसे साध्य-साधनभाव है। इसलिये एक वस्तुका किंचित् प्रमाणरूप होनेमें
और किंचित् प्रमाणफलरूप होने में विरोध नहीं आता। सारूप्य उस ज्ञान ( नील पदार्थका ज्ञान ) का निश्चय करनेमें हेतु है और नील पदार्थका ज्ञान व्यवस्थाप्य (निश्चेय)।" स्पष्टार्थ-बौद्ध लोग प्रमाण और प्रमितिको अभिन्न मानते हैं । उनके मतमें जिस ज्ञानसे (प्रत्यक्ष, अनुमान ) पदार्थ जाने जाते हैं, वही ज्ञान प्रमाण और प्रमिति दोनों रूप होता है। बौद्ध लोगोंने पदार्थों में प्रवृत्ति करनेवाले संशय और विपर्यय रहित प्रापक ज्ञानको प्रमाण माना है। जिस प्रापण शक्तिसे ज्ञान पदार्थसे उत्पन्न होनेपर भी प्रापक होता है, वही प्रमाणका फल है। अतएव जिस ज्ञानसे अर्थको प्रतीति होती है, उसी ज्ञानसे अर्थका दर्शन होता है, इसलिये ज्ञान प्रमाण और प्रमिति दोनों रूप है (तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् )। शंका-यदि ज्ञान प्रमिति रूप होनेसे प्रमाणका फल है, तो प्रमाण किसे कहते हैं ? उत्तर-ज्ञान पदार्थसे उत्पन्न होता है, और पदार्थोके आकार रूप होकर पदार्थोंको जानता है, इसलिये ज्ञान प्रमाण है। हमारे (बौद्ध) मतके अनुसार ज्ञान इन्द्रिय आदिकी सहायतासे पदार्थोंको नहीं जानता। किन्तु नील घटको जानते समय नील घटसे उत्पन्न
१. कारिकेयं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके, पृ० ४२१ उद्धृता । २. न्यायबिन्दौ १-१९, २० । ३. न्यायबिन्दौ १-२० स्वोपज्ञटोकायां ।