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________________ १२६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ __एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयार्पणात् सर्वत्र विज्ञेयम् । प्रमाणार्पणात् तस्य कथजिदविरुद्धधर्माध्यासितत्वम । सहशपरिणामरूपस्य विसदृशपरिमाणवत कथञ्चित प्रतिव्यक्तिभेदात् । एवं चासिद्धं सामान्यविशेषयोः सर्वथाविरुद्धधर्माध्यासितत्वम् । कथञ्चिद्विरुद्धधर्माध्यासितत्वं चेद् विवक्षितम् तदास्मत्कक्षाप्रवेशः । कथञ्चिविरुद्धधर्माध्यासस्य कथञ्चिद्भेदाविनाभूतत्वात् । पाथःपावकदृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनविकलः । तयोरपि कथञ्चिदेव विरुद्धधमाध्यासितत्वेन भिन्नत्वेन च स्वीकरणात् । पयस्त्वपावकत्वादिना हि तयोविरुद्धधर्माध्यासः भेदश्च । द्रव्यत्वादिना पुनस्तद्वैपरीत्यमिति । तथा च कथं न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते इति । ततः सुष्ठूक्तं वाच्यमेकमनेकरूपम् इति ॥ एवं वाचकमपि शब्दाख्यं द्वयात्मकम् सामान्यविशेषात्मकम् । सर्वशब्दव्यक्तिध्वनुयायि शब्दत्वमेकम् । शाङ्खशातीव्रमन्दोदात्तानुदात्तस्वरितादिविशेषभेदादनेकम् । शब्दस्य हि सामान्यविशेषात्मकत्वं पौद्गलिकत्वाद् व्यक्तमेव । तथाहि । पौद्गलिकः शब्दः, इन्द्रियार्थत्वात्, रूपादिवत् ॥ ___ यच्चास्य पौद्गलिकत्वनिषेधाय स्पर्शशून्याश्रयत्वात्, अतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात् , पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धेः, सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वाद्, गगनगुणत्वात् चेति पञ्चहेतवो यौगैरुपन्यस्ताः, ते हेत्वाभासाः। तथाहि । शब्दपर्यायस्याश्रयो भाषावर्गणा, तथा, सामान्य और विशेषका परस्पर कथंचित् अभेद होनेके कारण सामान्य-विशेप एक रूपसे और अनेक रूपसे व्यवस्थित है। विशेषोंसे भिन्न न होनेसे सामान्य भी अनेक रूपसे प्रतिव्यक्तिके भेदरूपसे इष्ट है और सामान्यसे विशेषोंका भेद न होनेसे विशेष भी एक रूपसे इष्ट है । व्यक्तियोंमें पाया जाने वाला सामान्य संग्रह नयकी विवक्षासे एक रूप होता है। प्रमाणको विवक्षा (मुख्यता ) से सामान्यका कथंचित् विरुद्ध धर्माच्यासितत्व समझना चाहिये। जिस प्रकार विसदृश परिणाम (परिणामाभिभूत ) प्रत्येक व्यक्तिसे कथंचित् भिन्न होता है, उसी प्रकार सदश परिणाम रूप सामान्यका भी प्रत्येक व्यक्तिसे कथंचित् भेद होता है । इस प्रकार सामान्य और विशेषका सर्वथा विरुद्ध धर्मोसे युक्त होना असिद्ध है । यदि सामान्य विशेषका कथंचित् विरुद्ध धर्मोसे युक्त होना प्रतिवादीको विवक्षित हो तो यह हमारे ही मतकी स्वीकृति होगी। क्योंकि कथंचित् विरुद्ध धर्मोंसे युक्त होना कथंचित् भेदके साथ अविनाभाव रूप होना है । तथा, जल और अग्निका दृष्टान्त भी साध्यविकल (साध्यमें न रहनेवाला) और साधन-विकल ( साधनमें न रहनेवाला) है। क्योंकि उन दोनोंको भी हमने कथंचित् विरुद्ध धर्माध्यासित और कथंचित् भिन्न रूपसे स्वीकार किया है। जलत्व और अग्नित्व आदिसे दोनों विरुद्ध धर्मोंसे युक्त हैं और दोनोंमें भेदका सद्भाव है । तथा, द्रव्यत्व आदिकी अपेक्षा दोनों विरुद्ध धर्मोसे युक्त नहीं हैं और उनमें भेद भी नहीं है । इस प्रकार वस्तुका सामान्य विशेषात्मकत्व कैसे नहीं सिद्ध होता? अतएव हमने जो कहा है कि वाच्य एक और अनेक दोनों रूप है, हमारा यह कथन बिलकुल ठीक है। इस प्रकार शब्दसंज्ञक वाचक भी सामान्य-विशेष दोनोंसे युक्त है। सभी शब्दरूप व्यक्तियोंमें अन्वित होने वाला शब्दत्व (सामान्य) एक रूप है और वह शब्दत्व शंख, धनुष, तीव्र, मन्द, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदिके शब्दभेदसे अनेक रूप है। तथा, शब्द पौद्गलिक होनेसे सामान्य और विशेष दोनों रूप है। तथाहि : 'शब्द पौद्गलिक है, क्योंकि रूप आदिकी तरह इन्द्रियका विषय है।' शब्द पुद्गलको पर्याय नहीं है, इसका निषेध करनेके लिए नैयायिकों और वैशेपिकोंने जो निम्नलिखित हेतु उपस्थित किये हैं, वे हेत्वाभास हैं : (१) स्पर्शसे शून्य पदार्थ उसका आश्रय है;
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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