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अन्य. यो. व्य. श्लोक १४] स्यावादमञ्जरी
१२५ दुर्नयप्रभावितमतिव्यामोहवशादेकमपलप्यान्यतरद् व्यवस्थापयन्ति वालिशाः । सोऽयमन्धगजन्यायः॥
येऽपि च तदेकान्तपक्षोपनिपातिनः प्रागुक्ता दोपास्तेऽप्यनेकान्तवादप्रचण्डमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वाद् नोच्छ्वसितुमपि क्षमाः । स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादिनस्त्वेवं प्रतिक्षेप्याः । सामान्य प्रतिव्यक्ति कथञ्चिद्भिन्नं, कथंचिदभिन्नं, कथञ्चित् तदात्मकत्वाद्, विसदृशपरिणामवत् । यथैव हि काचिद् व्यक्तिरुपलभ्यमानाद् व्यक्त्यन्तराद् विशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते, तथा सदशपरिणामात्मकसामान्यदर्शनात् समानेति । तेन समानो गौरयम्, सोऽनेन समान इति प्रतीतेः । न चास्य व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात् सामान्यरूपताव्याघातः। यतो रूपादीनामपि व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वमस्ति, न च तेपां गुणरूपताव्याघातः। कथञ्चिद् व्यतिरेकस्तु रूपादीनामिव सदृशपरिणामस्याप्यस्त्येव । पृथग्व्यपदेशादिभाक्त्वात् ।।
विशेषा अपि नैकान्तेन सामान्यात् पृथग्भवितुमर्हन्ति । यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिद्धं भवेत् तदा तेषामसर्वगतत्वेन ततो विरुद्धधर्माध्यासः स्यात् । न च तस्य तत् सिद्धम् । प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् । सामान्यस्य विशेपाणां च कथञ्चित् परस्पराव्यतिरेकेणैकानेकरूपतया व्यवस्थितत्वात् । विशेपेभ्योऽव्यतिरिक्तत्वाद्धि सामान्यमप्यनेकमिष्यते । सामान्यात् तु विशेपाणामव्यतिरेकात्तेऽप्येकरूपा इति ।
का कहीं पर, किसी कालमें, किसीके द्वारा अनुभव नहीं किया जाता। अज्ञानी पुरुप केवल दुर्नयसे प्रभावित मतिके व्यामोहके कारण सामान्य और विशेष इन दोनोंमेंसे एकका अपलाप दूसरेको सिद्धि करते हैं। यह अन्धगजन्याय ही है।
(३) क-सामान्य-एकान्त और विशेप-एकान्त पक्षमें उपस्थित होने वाले पूर्वोक्त दोष भी अनेकान्तवाद रूप प्रचण्ड मुद्गरके प्रहारसे जर्जरित होनेके कारण श्वास लेनेमें भी समर्थ नहीं रह जाते । सामान्य
और विशेषको परस्पर भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ मानने वालों (वैशेषिक और नैयायिक ) का निम्नलिखित रूपसे निराकरण करना चाहिये, 'सामान्य प्रत्येक व्यक्तिसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है, कथंचित् तदात्मक होनेसे, विसदृश परिणामकी तरह ।' ( विसदृश परिणामका जिस प्रकार अपने परिणामाभिभूत प्रत्येक व्यक्तिके साथ कथंचित तादात्म्य होनेसे, वह प्रत्येक व्यक्तिसे कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न है, उसी प्रकार सामान्यका प्रत्येक व्यक्तिके साथ कथंचित् तादात्म्य होनेसे, वह प्रत्येक व्यक्तिसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है )। जैसे किसी व्यक्तिका उपलभ्यमान अन्य व्यक्तिसे विसदृश परिणाम दिखाई देता है, उसी प्रकार वह सदृश परिणामस्वरूप सामान्य दिखाई देनेसे उपलभ्यमान अन्य व्यक्तिके समान ( सदृश परिणाम ) होता है; क्योंकि 'यह गाय उस गायके समान है', 'वह उसके समान है', इस प्रकारका ज्ञान होता है । व्यक्तिके स्वरूपसे अभिन्न होनेसे सामान्यकी सामान्यरूपतामें विरोध नहीं आता। क्योंकि रूप आदि अर्थ व्यक्ति ( विशेष ) के स्वरूपसे अभिन्न होने पर भी ( रूप आदिके घट आदिसे अभिन्न होने पर भी ) उनकी गुणरूपतामें विरोध नहीं आता। तथा, जिस प्रकार सामान्य व्यक्तिके स्वरूपसे कथंचित् भिन्न होता है, उसी प्रकार सदृशपरिणाम व्यक्तिके स्वरूपसे कथंचित् भिन्न है, क्योंकि व्यक्तिस्वरूप और सदृश परिणाम की संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भिन्न-भिन्न हैं।
ख-इसी प्रकार विशेष भी एकांत रूपसे सामान्यसे भिन्न होने योग्य नहीं है। क्योंकि यदि सामान्य सर्वव्यापक सिद्ध हो गया तो विशेषके सर्वव्यापक न होनेके कारण उनमें सामान्यसे विरुद्ध धर्मोंका अध्यारोप उपस्थित होगा। और सामान्यका सर्वव्यापकत्व सिद्ध नहीं है। इसका हम पहले ही खण्डन कर आये हैं।
१. जन्मान्धैर्दशभिर्यथाक्रमं पदचतुष्टयश्रोत्रद्वयशुण्डादन्तपुच्छरूपा गजावयवाः स्पृष्टाः। ततः तेऽन्धाः स्वस्पष्टरूपं स्तम्भाधाकारकं पूर्णतया गजस्वरूपं प्रतिपद्यमानास्तथैव स्थापयन्ति तदितरनिषेधयन्ति तद्वत ।