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श्रीमंद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लोक १४
व्यवहारं प्रवर्तयता तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽभ्युपगन्तव्यः । एवं सामान्यस्थाने विशेषशब्द, विशेपस्थाने च सामान्यशब्दं प्रयुञ्जानेन सामान्येऽपि तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽङ्गीकर्तव्यः । तस्मात् स्वस्वग्राहिणि ज्ञाने पृथकप्रतिभासमानत्वाद् द्वावपीतरेतर विशकलितौ । ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते । इति स्वतन्त्र सामान्यविशेषवादः ॥
तदेतत् पक्षत्रयमपि न क्षमते क्षोदम् । प्रमाणबाधितत्वात् । सामान्यविशेषोभयात्मकस्यैव वस्तुनो निर्विगानमनुभूयमानत्वात् । वस्तुनो हि लक्षणम् अर्थक्रियाकारित्वम् । तच्चानेकान्तवादे एवाविकलं कलयन्ति परीक्षकाः । तथाहि । यथा गौरित्युक्ते खुरककुत्सा - स्नालाङ्गूरुविषाणाद्यवयवसम्पन्नं वस्तुरूपं सर्वव्यक्त्यनुयायि प्रतीयते, तथा महिष्यादिव्यावृत्तिरपि प्रतीयते ॥
यत्रापि च शबला गौरित्युच्यते, तत्रापि यथा विशेष प्रतिभासः तथा गोत्वप्रतिभासोऽपि स्फुटएव । शबलेति केवलविशेषोच्चारणेऽपि, अर्थात् प्रकरणाद् वा गोत्वमनुवर्तते । अपि च, शवलत्वमपि नानारूपम्, तथा दर्शनात् । ततो वक्त्रा शबलेत्युक्ते क्रोडीकृत सकलशबलसामान्यं विवक्षितगोव्यक्तिगतमेव शबलत्वं व्यवस्थाप्यते । तदेवमाबालगोपालं प्रतीतिप्रसिद्धेऽपि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वे तदुभयैकान्तवादः प्रलापमात्रम् । न हि कचित् कदाचित् केनचित् सामान्यं विशेषविनाकृतमनुभूयते, विशेषा वा तद्विनाकृताः । केवलं
द्वारा किये जानेवाले व्यवहारका अभाव तो है नहीं; क्योंकि विशेष शव्दकी और विशेषके द्वारा किये जानेवाले व्यवहारकी प्रवृत्ति देखी जाती है । अतएव विशेषकी अभिलाषा करनेवालेको और विशेषसाध्य व्यवहारकी प्रवृत्ति करनेवालेको सामान्य ज्ञानसे भिन्न विशेषको जाननेवाले ज्ञानको स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार सामान्यके वाचक शब्द के स्थान में विशेषके वाचक शब्दका, और विशेषके वाचक शब्दके स्थान में सामान्यके वाचक शब्दका प्रयोग करनेवालेको, सामान्यके विषय में भी विशेषके ज्ञानसे भिन्न सामान्यके ज्ञानको स्वीकार करना चाहिए । अतएव सामान्यको जाननेवाले ज्ञानमें और विशेषको जाननेवाले ज्ञानमें पृथक् रूपसे प्रतिभासित होने के कारण सामान्य और विशेष दोनों ही एक दूसरेसे भिन्न सिद्ध होते हैं । अतएव पदार्थका सामान्य विशेषात्मक रूप घटित नहीं होता। इसलिए स्वतन्त्र सामान्य और स्वतन्त्र विशेषवाद ही ठीक है । जैन - (१) उक्त तीनों पक्ष प्रमाणसे बाधित होनेसे परीक्षाको कसौटी पर ठीक नहीं उतरते । क्योंकि सामान्य-विशेष रूप पदार्थ ही निर्दोष रूपसे अनुभव में आते हैं। वस्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है और यह लक्षण अनेकान्तवादमें ही ठीक-ठीक घटित हो सकता है। गौके कहनेपर जिस प्रकार खुर, ककुत्, सास्ना, पूँछ, सींग आदि अवयवोंवाले गो पदार्थका स्वरूप सभी गो व्यक्तियोंमें पाया जाता है, उसी प्रकार भैंस आदिको व्यावृत्ति भी प्रतीत होती है । अतएव एकान्त सामान्यको न मान कर पदार्थोंको सामान्य- विशेष रूप ही मानना चाहिये ।
(२) जहाँ 'शबला गो' कहा जाता है, वहीं जिस प्रकार विशेषका ज्ञान होता है, उसी प्रकार गोत्व सामान्यका ज्ञान भी स्पष्ट ही है । 'शबला' केवल इस विशेषका उच्चारण करने पर भी अर्थ या प्रकरणकी दृष्टिसे गोत्व सामान्यको अनुवृत्ति होती है ( अर्थात् गोत्व सामान्यका ज्ञान होता है ) । तथा, शबलत्व भी अनेक प्रकारका होता है, क्योंकि वैसा देखनेमें आता है । अतएव वक्ताके द्वारा 'शवला' कहा जानेपर, अपने में सभी शबल - सामान्यका अन्तर्भाव करनेवाले विवक्षित गोव्यक्ति में विद्यमान रहनेवाले ही शबलत्वका निश्चय किया जाता है। इस प्रकार वस्तुका सामान्य विशेषात्मकत्व सभी बाल-गोपाल में अनुभवसिद्ध है, फिर भी सामान्य ही सद्भूत है, विशेष नहीं, और विशेष सद्भूत है, सामान्य नहीं, इस प्रकारका ऐकान्तिक कथन प्रलापमात्र है । विशेषोंसे पृथक् किये गये सामान्यक! और सामान्यसे पृथक् किये गये विशेषों