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अन्ध और प्रथकार
हेमचन्द्र हेमचन्द्र आचार्य श्वेताम्वर परम्परामें महान प्रतिभाशाली असाधारण विद्वान हो गये हैं। हेमचन्द्राचार्यका जन्म ई. स. १०७८ में गुजरातके धन्धुका ग्राममें मोढ़ वणिक जातिमें हुआ था । हेमचन्द्र के जन्मका नाम चंगदेव अथवा चांगोदेव था। इनके पिताका नाम चच्च, चाच अथवा चाचिग, और माताका पाहिनी अथवा चाहिणी था। एक बार देवचन्द्र नामके एक जैन साधु धंधुकामें आये । चंगदेवको अवस्था केवल पांच वर्षकी थी। पाहिनी अपने पुत्रको लेकर जिनमंदिरके दर्शन करने गई। देवचन्द्र भी इसी मंदिरमें ठहरे थे। जिस समय पाहिनी जिन प्रतिविम्बकी प्रदक्षिणा दे रही थी, चंगदेव देवचन्द्र महाराजके पास आकर बैठ गये। आचार्य चंगदेवके शरीरपर असाधारण चिह्न देखकर आश्चर्यचकित हए और उन्होंने चंगदेवके घर जाकर पाहिनीसे उसके पुत्रको जैन साधुसंघमें दीक्षित करनेकी अनुमति मांगी। पाहिनीने गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की और चंगदेवको देवचन्द्र आचार्यके सुपुर्द कर दिया । जव चंगदेवके पिता वाहरसे लौटे, इस घटनाको सुनकर बहुत क्रुद्ध हुए। अन्तमें सिद्धराजके तत्कालीन जैन मंत्री उदयनने चंगदेवके पिताको शान्त किया, तथा चंगदेवका विधि विधानपूर्वक दीक्षा-संस्कार हो गया। दीक्षाके पश्चात् चंगदेवका नाम सोमचन्द्र रक्खा गया । प्रतिभाशाली सोमचन्द्रने शीघ्र ही तर्क, लक्षण, साहित्य और आगम इन चारों विद्याओंका पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। देवचन्द्र सूरिने अपने शिष्यका अगाघ पांडित्य देख सोमचन्द्रको सूरिको उपाधिसे विभूषित किया, और अब सोमचन्द्र हेमचन्द्र सूरिके नामसे कहे जाने लगे।
एक बार हेमचन्द्र आचार्य विहार करते करते गुजरातकी राजधानी अणहिल्लपुर पाटणमें पधारे । उस समय वहां महाराज सिद्धराज जयसिंह राज्य करते थे ! सिद्धराजने हेमचन्द्र आचार्यको राजसभामें आमत्रित किया, और हेमचन्द्रके अगाध पाण्डित्यको देखकर वे बहुत मुग्ध हुए। हेमचन्द्र अणहिल्लपुरमें ही रहने लगे । सिद्धराजने कोई अच्छा व्याकरण न देखकर हेमचन्द्रसे कोई व्याकरण लिखने का अनुरोध किया । तत्पश्चात् हेमचन्द्रने गुजरातके लिये सिद्धहमशब्दानुशासन नामके व्याकरणकी रचना की। यह व्याकरण राजाके हाथीपर रखकर राज दरवारमें लाया गया। सिद्धराज शैवधर्मी थे। एक बार हेमचन्द्र सिद्धराजके साथ सोमनाथके मंदिर में गये। हेमचन्द्रने निम्न श्लोकोंसे शिवको नकस्कारकर अपने हृदयकी विशालताका परिचय दिया
भवबीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया यया ।
वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ हेमचन्द्रके उपदेशसे सिद्धराजको जैनधर्मके प्रति प्रीति उत्पन्न हुई, और फलस्वरूप सिद्धराजने पाटणमें 'रायविहार' और सिद्धपुरमें 'सिद्धविहार' नामक चौबीस जिन प्रतिमावाले मंदिर बनवाये । सिद्धराजके समय हेमचन्द्र केवल अपने विद्या-वैभवके कारण सत्कारके पात्र हुए थे। परन्तु सिद्धराजके उत्तराधिकारी कुमारपाल हेमचन्द्रको राजगुरुको तरह मानने लगे। हेमचन्द्रके उपदेशसे कुमारपालने अपने राज्यमें
१. सोमप्रभसूरिके अनुसार चंगदेवने स्वयं ही देवचन्द्रसूरिके उपदेश सुनकर उनका शिष्य होनेकी इच्छा प्रगट
की, और वे देवचन्द्रसूरिके साथ-साथ भ्रमण करने लगे। देवचन्द्र भ्रमण करते-करते जब खंभात आये तो वहां चंगदेवके मामा नेमिचन्द्रने चंगदेवके माता-पिताको समझाया और देवचन्द्रसूरिने चंगदेवको दीक्षा दी।