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ग्रंथ और ग्रंथकार
देव-देवियों के निमित्त से की जानेवाली प्राणियोंकी हिंसाको, और, मांस, मद्य, छूत, शिकार आदि दुर्व्यसनोंको रोकनेकी घोपणा कराई, और जैनधर्मके सिद्धांतोंका अधिकाधिक प्रचार किया ।
हेनचन्द्र चारों विद्याओंके समुद्र थे, और अपने असामान्य विद्या-वैभवके कारण कलिकालसर्वज्ञके नामसे प्रख्यात पे । मल्लिपेण हेमचन्द्रका पूज्य दृष्टिले स्मरण करते हैं, और उन्हें चार विद्याओं संबंधी साहित्यके निर्माण करनेने साक्षात् ब्रह्माकी उपमा देते है । सिद्धहमशब्दानुशासनके अतिरिक्त हेमचन्द्रने तर्क, साहित्य, छन्द, योग, नीति, यादि विविध विपयोंपर अनेक ग्रंथोंकी रचना करके जैन साहित्यको पल्लवित बनाया। कहा जाता है कि कुल मिलाकर हेमचन्द्रने साढ़े तीन करोड़ श्लोकोंकी रचना की है। हेमचन्द्रके मुख्य ग्रंथ निम्न प्रकार हैं१ सिद्धहमशब्दानुशासन : (अ) प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण
(आ) आठवें अध्यायमें प्राकृत एवं अपभ्रंश व्याकरण २ द्वयाश्रयमहाकाव्य ( माघकृत भट्टिकाव्य के आदर्श पर)
(अ) संस्कृत दयाश्रय; (आ) प्राकृत द्वयोश्रय ३ कोप : (अ) अभिघानचितामणि-सवृत्ति (हैमीनाममाला); (आ) अनेकार्थसंग्रह; (इ)
देशानाममाला-सवृत्ति ( रयणावलि ); (ई) निघंटुशेप ४ अलंकार : काव्यानुशासन-सवृत्ति ५ छंद : छंदोनुशासन-सवृत्ति ६ न्याय : (अ) प्रमाणमीमांसा [ अपूर्ण]; (आ) अन्योगव्यवच्छेदिका (स्याद्वादमंजरी); (इ)
अयोगव्यवच्छेदिका ७ योग : योगशास्त्र-सवृत्ति ( अध्यात्मोपनिषद् ) ८ स्तुति : वीतरागस्तोत्र ९ चरित : त्रिषष्टिशलाकापुरुचरित
इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त हेमचन्द्रने और भी ग्रंथोंका निर्माण किया है। हेमचन्द्र भारतके एक दैदीप्यमान रत्न थे; उनके बिना जैन साहित्य ही नहीं, गुजरातका साहित्य शून्य समझा जायेगा ।
अन्ययोग और अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिकायें दार्शनिक विचारोंको संस्कृत पद्योंमें प्रस्तुत करनेकी पद्धति भारतवर्ष में बहुत समयसे चली जाती है। उपलब्ध भारतीय साहित्यमें सर्वप्रथम विज्ञानवादी वौद्ध आचार्य बसुबंधुद्वारा, विज्ञानवादको सिद्धिके लिये बीस श्लोकप्रमाण विशिका. और तीस श्लोकप्रप्राण त्रिशिकाकी रचना देखनेमें आती है। जैन साहित्यमें सर्वप्रथम सुप्रसिद्ध जैन दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकरने द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाओंकी रचना की। हरिभद्रने भी विंशतिविशिकामोंको लिखा है। हेमचन्द्रने सिद्धसेनकी द्वात्रिंशिकाओंके अनुकरण पर सरल और मार्मिक भाषामें अन्ययोगव्यवच्छेद और अयोगव्यवच्छेद नामकी दो द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की है।
१. एक विद्वान्ने इस व्याकरणको प्रशंसा निम्न श्लोकसे की थी
भ्रातः संवृणु पाणिनीप्रलपितं कातंत्रकथा वृथा मा कार्षीः कटुशाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् । किं कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि
श्रयन्ते यदि तावदर्थमथुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः॥ जैन साहित्यनो इतिहास पृ. २९४ । २. विशेपके लिये देखिये प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित होनेवाली 'भारतके
सांस्कृतिक अग्रदूत' पुस्तकमें लेखक का 'आचार्य हेमचन्द्र' नामक निबंध ।