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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ तद्विपयवचसामप्रवृत्तेर्मूकतैव तेषां श्रेयसी । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः। शुक्तिशकलकलधौतेऽपि प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन अनिर्वचनीयतायाः साध्यमानत्वात् । किञ्च, इदमनुमानं प्रपञ्चाद् भिन्नम् अभिन्नं वा ? यदि भिन्नं, तर्हि सत्यमसत्यं वा ? यदि सत्यं, तहिं तद्वदेव प्रपञ्चस्यापि सत्यत्वं स्यात् । अद्वैतवादप्राकारे खण्डिपातात् । अथासत्यम् , तर्हि न किञ्चित् तेन साधयितुं शक्यम्, अवस्तुत्वात् । अभिन्नं चेत्, प्रपञ्चस्वभावतया तस्यापि मिथ्यारूपत्वापत्तिः। मिथ्यारूपं च तत् कथं स्वसाध्यसाधनायालम् । एवं प्रपञ्चस्यापि मिथ्यारूपत्वासिद्धेः कथं परमब्रह्मणस्तात्त्विकत्वं स्यात् यतो बाह्यार्थाभावो भवेदिति ।। ___ अथवा प्रकारान्तरेण सन्मात्रलक्षणस्य परमब्रह्मणः साधनं दूषणं चोपन्यस्यते । ननु परमब्रह्मण एवैकस्य परमार्थसतो विधिरूपस्य विद्यमानत्वात् प्रमाणविपयत्वम् । अपरस्य द्वितीयस्य कस्यचिदप्यभावात् । तथाहि । प्रत्यक्षं तदावेदकमस्ति । प्रत्यक्षं द्विधा भिद्यते निर्विकल्पकसविकल्पकभेदात् । ततश्च निर्विकल्पकप्रत्यक्षात् सन्मात्रविपयात् तस्यैकस्यैव सिद्धिः। तथा चोक्तम् ___"अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्" ।' न च विधिवत् परस्परव्यावृत्तिरप्यध्यक्षत एव प्रतीयते इति द्वैतसिद्धिः। तस्य निषेधा ब्रह्मात्मरूप विपक्ष में रहता है, अतएव व्यभिचारी है। क्योंकि ब्रह्मात्मा प्रतीयमान है, परन्तु मिथ्या नहीं है। यदि ब्रह्मको अप्रतीयमान मानो तो ब्रह्मके विषयमें वचनोंकी प्रवृत्ति न होनेसे मौन रहना ही श्रेयस्कर होगा। तथा, 'सोपमें चाँदी' ( शुक्तिशकले कलधौतं ) का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह 'प्रपंच मिथ्यारूप' साध्यमें नहीं रहता, इसलिये साध्यविकल है। क्योंकि सीप और चाँदी दोनों ही प्रपंचके अन्तर्भूत है, इसलिये उनका अनिर्वचनीयत्व ( मिथ्यारूपता) साध्यमान ही है-सिद्ध नहीं है (जो दृष्टान्त दिया जाता है, वह सिद्ध होता है, असिद्ध नहीं। इसे अनुपसंहारी हेत्वाभास भी कहते हैं )। तथा, आपका अनुमान 'यह प्रपंच मिथ्यारूप है प्रतीयमान होनेसे' प्रपंचसे भिन्न है, या अभिन्न ? यदि भिन्न है, तो सत्य है, या असत्य ? यदि अनुमान प्रपंचसे भिन्न होकर सत्य है, तो अनुमानके समान प्रपंच भी सत्य होना चाहिये। तथा, प्रपंचकी सत्यता स्वीकार करने में अद्वैतरूपी प्राकारपर कुठाराघात होता है। यदि अनुमान असत्य है, तो वह अवस्तु होनेसे साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता। यदि अनुमान प्रपंचसे अभिन्न है, तो प्रपंचरूप होनेसे अनुमान भी मिथ्यारूप होना चाहिये, और मिथ्यारूप अनुमान साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता। इस प्रकार जब प्रपंच मिथ्यारूप सिद्ध नहीं हो सकता, तो परब्रह्मकी तात्त्विकता भी सिद्ध नहीं हो सकती, जिससे बाह्य पदार्थोंका अभाव सिद्ध हो सके । अथवा प्रकारान्तरसे सत्तामात्र रूप परब्रह्मके साधन और दूषणका उपन्यास किया जाता है। वेदान्ती-वास्तवमें एकमात्र परमार्थ सत् विधिरूप ब्रह्म विद्यमान होनेसे प्रमाणका विपय है, क्योंकि वह परमार्थ सत् विधिरूप किसी भी दूसरे पदार्थका अभाव है। तथाहि-प्रत्यक्ष एक परमार्थ सत् विविरूप ब्रह्मको जानता है। यह प्रत्यक्ष निर्विकल्पक और सविकल्पकके भेदसे दो प्रकारका है । सन्मात्रको जाननेवाले निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे एकमात्र ब्रह्मको सिद्धि होती है । कहा भी है "चक्षके सन्निपातके अनन्तरवर्ती और सविकल्पक ज्ञानके पूर्ववर्ती तथा शुद्ध वस्तु अर्थात् सामान्यविशेष रहित वस्तुको जाननेवाला बालक और गूंगेके ज्ञानके समान, ऐसे इन्द्रियज्ञान का सद्भाव है।" विधिके समान घट, पट पदार्थोंकी परस्पर व्यावृत्तिका ज्ञान भी प्रत्यक्षसे ही होता है, अतएव द्वैतकी १. मीमांसाश्लोकवार्तिक ४ प्रत्यक्षसूत्रे ११२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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