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अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ ] स्याद्वादमञ्जरी
११५ विषयत्वात् । “आहुर्विधात प्रत्यक्षं न निषेद्ध" इत्यादिवचनात् । यच्च सविकल्पकप्रत्यक्ष घटपटादिभेदसाधकं, तदपि सत्तारूपेणान्विानामेव तेषां प्रकाशकत्वात् सत्ताऽद्वैतस्यैव साधकम् । सत्तायाश्च परब्रह्मरूपत्वात् । तदुक्तम्- “यदद्वैतं तद् ब्रह्मणो रूपम्" इति ॥
अनुमानादपि तत्सद्भावो विभाव्यत एव । तथाहि । विधिरेव तत्त्वं, प्रमेयत्वात् । यतः प्रमाणविषयभूतोऽर्थः प्रमेयः। प्रमाणानां च प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्तिसंज्ञकानां भावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः। तथा चोक्तम्
"प्रत्यक्षाद्यवतारः स्याद् भावांशो गृह्यते यदा ।
व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षिते" ॥ यच्चाभावाख्यं प्रमाणं तस्य प्रामाण्याभावाद् न तत् प्रमाणम् । तद्विषयस्य कस्यचिदप्यभावात् । यस्तु प्रमाणपञ्चकविषयः स विधिरेव । तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् । सिद्धं प्रमेयत्वेन विधिरेव तत्त्वम् , यत्तु न विधिरूपं, तद् न प्रमेयम्, यथा खरविषाणम् । प्रमेयं चेदं निखिलं वस्तुतत्त्वम् , तस्माद् विधिरूपमेव । अतो वा तत्सिद्धिः। ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः, प्रतिभासमानत्वात्, यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तःप्रविष्टम् , यथा प्रतिभासस्वरूपम् । प्रतिभासन्ते च प्रामारामादयः पदार्थाः, तस्मात् प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः ॥
आगमोऽपि परमब्रह्मण एव प्रतिपादकः समुपलभ्यते-"पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं
सिद्धि नहीं होती। क्योंकि "प्रत्यक्षको विधायक कहते हैं, निषेधक नहीं"-इस वचनके अनुसार, निषेध प्रत्यक्षका विषय नहीं होता। तथा, घट, पट आदिके विकल्प ( भेद ) को ग्रहण करनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष भी सत्तारूप से अन्वित घट, पट आदिको ही जानता है, इसलिये सविकल्पक प्रत्यक्ष भी सत्ता अद्वैतका ही साधक है । क्योंकि सत्ता परब्रह्म रूप है । कहा भी है-"जो अद्वैत है वही ब्रह्मका स्वरूप है"
अनुमान प्रमाणसे भी ब्रह्मका अस्तित्व सिद्ध होता ही है । तथाहि-'विधि ( अर्थात् परब्रह्म) ही तत्त्व (परमार्थभूत पदार्थ ) है, प्रमेय होनेसे' । प्रमाणके विषयभूत अर्थको प्रमेय कहते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति नामसे कहे जानेवाले प्रमाण पदार्थोंको अपना विषय बनाकर प्रवृत्त होते हैं। कहा भी है
"जब वस्तुके भावांशको ग्रहण किया जाता है, तब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी उपस्थिति होती है, तथा वस्तुके अभाव अंशको जाननेकी इच्छा होनेपर प्रत्यक्ष आदिके अभावकी प्रवृत्ति होती है।" ( मीमांसक वस्तुको सदसदात्मक मानते हैं, अर्थात् उनके अनुसार, वस्तु भावांश और अभाव-अंशसे युक्त होती है)।
तथा, अभाव नामक प्रमाणमें प्रामाण्यका अभाव होनेसे (प्रमितिका साधकतम साधन न होनेके कारण ), वह प्रमाण नहीं है, क्योंकि उसके विषयभूत किसी भी पदार्थका अस्तित्व नहीं है, अर्थात् उसका कोई भी विषय नहीं है। प्रत्यक्ष आदि पांचों प्रमाणों का जो विषय है वह विधिरूप ही है। प्रमेयत्व उस विधि से व्याप्त है। अतएव प्रमेयत्व होनेसे विधि ही तत्त्वरूपसे सिद्ध है। जो विधिरूप नहीं है, वह प्रमेय भी नहीं है, जैसे गधेके सोंग । यह सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व प्रमेयरूप है, इसलिये वह विधिरूप ही है। अथवा, 'गांव, बगीचा आदि पदार्थ प्रतिभासमें गभित हो जाते हैं, प्रतिभासका विषय होनेसे । जो प्रतिभासका विषय है, वह प्रतिभासमें गर्भित हो जाता है, जैसे प्रतिभासका स्वरूप । गांव, बगीचे आदि प्रतिभासित होते है, इसलिये वे प्रतिभासके ही भीतर आ जाते हैं'-इस अनुमानसे भी ब्रह्मकी सिद्धि होती है।
आगम भी ब्रह्मका प्रतिपादन करता है। जैसे, "जो हुआ है, जो होगा; जो अमृतका अधिष्ठाता है, आहारसे वृद्धिको प्राप्त होता है।" "जो गतिमान है, स्थिर है, दूर है, पास है, चेतन और अचेतन सबमें
१. मीमांसाश्लोकवार्तिक ५ अभावपरिच्छेदे १७ ।