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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ ] स्याद्वादमञ्जरी ११३ किञ्च, इयमनिर्वाच्यता प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षबाधिता। घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्षं प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति, घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मनस्तस्योत्पादात् । इतरेतरविविक्तवस्तूनामेव च प्रपञ्चशब्दवाच्यत्वात् । अथ प्रत्यक्षस्य विधायकत्वात् कथं प्रतिषेधे सामर्थ्यम् । प्रत्यक्षं हि इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति, नान्यत्स्वरूपं प्रतिषेधति । "आहुर्विधात प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः। नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते" । इति वचनात् । इति चेत् । न । अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्तेः। पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति, नान्यथा। केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्ते रेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात , मुण्डभूतलग्रहणे घटाभावग्रहणवत् । तस्माद् यथा प्रत्यक्षं विधायकं प्रतिपन्नं, तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् । अपि च, विधायकमेव प्रत्यक्षमित्यङ्गीकृते, यथा प्रत्यक्षेण विद्या विधीयते, तथा किं नाविद्यापीति । तथा च द्वैतापत्तिः। ततश्च सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः । तदमी वादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यक्षात् प्रतियन्तोऽपि न निषेधकं तदिति ब्रुवाणाः कथं नोन्मत्ताः। इति सिद्धं प्रत्यक्षबाधितः पक्ष इति ।। अनुमानबाधितश्च । प्रपञ्चो मिथ्या न भवति, असद्विलक्षणत्वात् , आत्मवत् । प्रतीयमानत्वं च हेतुर्ब्रह्मात्मना व्यभिचारी। स हि प्रतीयते, न च मिथ्या। अप्रतीयमानत्वे त्वस्य नहीं बन सकता । तथा प्रतीयमानत्व हेतुके होनेसे प्रपंचको प्रतीयमान होना चाहिये । (घ) यदि कहो कि प्रपंच जैसा है, वैसा प्रतीत नहीं होता यही निस्स्वभावत्वका अर्थ है, तो इसे स्वीकार करने में विपरीत ख्याति ही माननी पड़ेगी, जिसे मायावादी स्वीकार नहीं करते। तथा प्रपंचकी यह अनिर्वाच्यता (निस्स्वभावता ) प्रत्यक्षसे बाधित है । 'यह घट है' इत्यादि रूप प्रत्यक्ष, प्रपंच की सत्यताका निश्चय करता है, क्योंकि घटादि रूप निश्चित पदार्थको जाननेवाले के रूपमें उसकी उत्पत्ति होती है। तथा, इतरेतर भिन्न पदार्थ ही प्रपंच शब्दके वाच्य हैं। शंका-प्रत्यक्ष विधायक है, अतएव प्रतिषेध करनेकी सामर्थ्य उसमें कैसे हो सकती है ? प्रत्यक्ष, 'यह है' इस प्रकार वस्तुके स्वरूप को जानता है, दूसरे स्वरूपका प्रतिषेध वह नहीं करता । कहा भी है "प्रत्यक्ष विधायक है, निषेधक नहीं, अतएव एकत्वका प्रतिपादन करनेवाला आगम प्रत्यक्षसे बाधित नहीं हो सकता।" समाधान-यह ठीक नहीं है। क्योंकि अन्य स्वरूपके निषेधके बिना, वस्तु-स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता । जैसे, पीत आदि वर्णवाले पदार्थसे भिन्न नील वर्णवाला पदार्थ, 'यह नील वर्ण है' इस प्रकार जाना जाता है, अन्य प्रकारसे नहीं। शून्य भूतलका ज्ञान होने पर जिस प्रकार घटके अभावका ज्ञान होता है, उसो प्रकार केवल वस्तुस्वरूपका ग्रहण हो अन्यका प्रतिषेध रूप ग्रहण होता है। अतएव जिस प्रकार प्रत्यक्षको विधायक माना है, उसी प्रकार उसे निषेधक भी मानना चाहिये । तथा, यदि प्रत्यक्षको केवल विधायक ही माना जाय तो जिस प्रकार प्रत्यक्ष द्वारा विद्याका विधान किया जाता है, वैसे ही उसीके द्वारा अविद्याका विधान भी क्यों नहीं माना जाता? यदि प्रत्यक्षको अविद्याका भी विधायक माना जाय, तो विद्या और अविद्या, ब्रह्म और जगत्-इन दो पदार्थोंके होनेसे द्वैतका प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार प्रपंच सुव्यवस्थित है । अतएव जब ब्रह्माद्वैतवादी, प्रत्यक्षसे अविद्याका निषेध करके प्रत्यक्षको सन्मात्रग्राही मानने पर भी, उसे निषेधक नहीं स्वीकार करते, तो उन्हें उन्मत्त क्यों न कहा जाये ? इस प्रकार 'प्रपंच मिथ्यारूप है'-यह पक्ष प्रत्यक्षसे बाधित है, यह सिद्ध हो जाता है। तथा, 'प्रपञ्चो मिथ्यारूपः प्रतीयमानत्वात्', यह पक्ष 'प्रपञ्चो मिथ्या न भवति असद्विलक्षणत्वात आत्मवत्' इस अनुमानसे बाधित है। ( अर्थात् जिस प्रकार ब्रह्मरूप आत्मा असत् से भिन्न होने से मिथ्यारूप नहीं है, उसी प्रकार प्रपंच भी असत् से भिन्न होने पर भी मिथ्यारूप नहीं)। यहाँ, प्रतीयमानत्व हेतु
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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