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________________ १०६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो.व्य. श्लोक १२ नन्वनुभूतेरनुभाव्यत्वे घटादिवदननुभूतित्वप्रसङ्गः। प्रयोगस्तु ज्ञानमनुभवरूपमप्यनुभूतिर्न भवति, अनुभाव्यत्वाद्, घटवत्, अनुभाव्यं च भवद्भिरिष्यते ज्ञानं, स्वसंवेद्यत्वात् । नैवम् । ज्ञातु तृत्वेनेवानुभूतेरनुभूतित्वेनैवानुभवात् । न चानुभूतेरनुभाव्यत्वं दोषः। अर्थापेक्षयानुभूतित्वात्' स्वापेक्षया चानुभाव्यत्वात् । स्वपितृपुत्रापेक्षयैकस्य पुत्रत्वपितृत्ववद् विरोधाभावात् ।। अनुमानाञ्च स्वसंवेदनसिद्धिः । तथाहि । ज्ञानं स्वयं प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति, प्रकाशकत्वात्, प्रदीपवत् । संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात् प्रकाशकत्वमसिद्धमिति चेत् । न । अज्ञाननिरासादिद्वारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः।। ननु नेत्रादयः प्रकाशका अपि स्वं न प्रकाशयन्तीति प्रकाशकत्वहेतोरनैकान्तिकतेति चेत्, न मेत्रादिभिरनैकान्तिकता । तेषां लब्ध्युपयोगलक्षणभावेन्द्रियरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । भावेन्द्रियाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति न व्यभिचारः। तथा संवित् स्वप्रकाशा, अर्थप्रतीतित्वात, यः स्वप्रकाशो न भवति नासावर्थप्रतीतिः, यथा घटः॥ शंका-यदि अनुभूति (ज्ञानको ) को अनुभाव्य (ज्ञेय) स्वीकार किया जाय, तो ज्ञेय घट-पटके समान ज्ञानको भी अज्ञान रूप मानना चाहिये । अतएव 'ज्ञान अनुभव रूप हो कर भी अनुभाव्य ( ज्ञेय) होनेसे घटकी तरह अनुभूति ( ज्ञान ) नहीं हो सकता।' और आपने ज्ञानको अनुभाव्य माना है, स्वसंवेद्य होनेसे । समाधान-जैसे ज्ञाताका ज्ञातृत्व रूपसे अनुभव होता है, वैसे ही अनुभूति भी अनुभूति रूपसे ही अनुभवमें आती है। तथा, अनुभूतिको अनुभाव्य माननेमें दोष नहीं आता, क्योंकि अनुभूति पदार्थोंको जाननेकी अपेक्षा अनुभूति रूप है, परन्तु जब वही अनुभूति स्वसंवेदन करती है, तब वह अनुभाव्य कही जाती है। जिस प्रकार एक ही पुरुषको अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र और अपने पुत्रोंकी अपेक्षा पिता कहा जाता है, उसी प्रकार एक ही अनुभूति भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे अनुभूति और अनुभाव्य कही जाती है। इसलिये कोई विरोध नहीं है। तथा, 'ज्ञान स्वयं प्रकाशित होता हुआ ही दूसरे पदार्थोको जानता है, क्योंकि वह प्रकाशक है, दीपककी तरह' इस अनुमानसे ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि होती है। यदि कहो कि ज्ञान प्रकाश्य है, इसलिये प्रकाशक नहीं हो सकता तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि ज्ञान अज्ञानको नाश करता है, इसलिये वह प्रकाशक ही है। शंका--नेत्र आदि प्रकाशक होनेपर भी अपने आपको प्रकाशित नहीं करते, इसलिये प्रकाशकत्व हेतु अनैकान्तिक है। समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि नेत्र आदि लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रियद्वारा अपने आपको भी जानते हैं । (मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली विशुद्धि, अथवा विशुद्धि से उत्पन्न होनेवाले उपयोगात्मक ज्ञानको भावेन्द्रिय कहते हैं । लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय कही जाती है। स्पर्शन, रसना आदि पांच इन्द्रियोके आवरणके क्षयोपशम होनेपर पदार्थों के जाननेकी शक्तिविशेषको लब्धि, तथा अपनी अपनी लब्धिके अनुसार आत्माके पदार्थों में प्रवृत्ति करनेको उपयोग कहते हैं। ) भावेन्द्रियां स्वसंवेदन रूप होती हैं, अतएव इसमें कोई विरोध नहीं है। अतएव ज्ञान स्वप्रकाशक है, क्योंकि वह पदार्थों को जानता है; जो स्वप्रकाशक नहीं होता, वह पदार्थों को नहीं जानता, जैसे घट । १. प्रदीपस्यार्थापेक्षया प्रकाशकत्वं स्वापेक्षया च प्रकाश्यप्रकाशकत्वम् । २. जन्तोः श्रोत्रादिविषयस्तत्तदावरणस्य यः । स्यात् क्षयोपशमो लब्धिरूपं भावेन्द्रियं हि तत् ॥ स्वस्वलब्ध्यनुसारेण विषयेषु यः आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं भवेद्भावेन्द्रियं च तत् ॥ लोकप्रकाशे ३ ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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